पंचकोश और उनका अनावरण
मानवी चेतना को पांच भागों में विभक्त किया गया है. इस
विभाजन को पांच कोश कहा जाता है. अन्नमयकोश का अर्थ है इन्द्रीय चेतना. प्राणमयकोश
अर्थात जीवनीशक्ति. मनोमयकोश-विचार-बुद्धि. विज्ञानमयकोश
–अचेतन(अवचेतन) सत्ता एवं भावप्रवाह. आनंदमयकोश-आत्मबोध-आत्मजाग्रति.
प्राणियों का स्तर इन चेतनात्मक परतों के अनुरूप ही
विकसित होता है. कीड़ों की चेतना इन्द्रीयों की प्रेणना के इर्द-गिर्द ही घूमती है.
उनका ‘स्व’ काया की परिधि में ही सीमित रहता है. इससे आगे की न उनकी इच्छा होती
है, न विचारणा, न क्रिया. इस वर्ग के प्राणियों को अन्नमय कह सकते हैं. आहार ही
उनका जीवन है. पेट तथा अन्य इन्द्रियों का समाधान होने पर वे संतुष्ट रहतें हैं.
प्राणमयकोश की क्षमता जीवनी-शक्ति के रूप में प्रकट होती
है. संकल्पबल साहस आदि स्थिरता और दृढ़ता बोधक गुणों में इसे जाना जा सकता है.
जिजीविषा के आधार पर ऐसे प्राण मनोबल का सहारा लेकर भी अभावों और कठिनाइयों से
जूझते हुए जीवित रहते हैं, जबकि कीड़े ऋतुप्रभाव जैसी प्रतिकूलताओं से प्रभावित
होकर बिना संघर्ष किये प्राण त्याग देते हैं. सामान्य पशु-पक्षी इसी स्तर के होते
हैं. इसीलिए साहसिकता के अनुरूप उन्हें प्राणी कहा जाता है. निजी-उत्साह, पराक्रम
करने के अभ्यास को प्राणशक्ति कहते हैं. यह विसेषता होने के कारण छोटे-मोटे कीड़ों
की तुलना में बड़े आकार के पुरुषार्थी जीव, प्राणधारियों की संख्या में गिने जाते
हैं. यों जीवन तो कीड़ों-मकोड़ों में भी होता है, पर वे प्रकृति प्रेरणा की कठपुतली
भर होते हैं. निजी संकल्प विकसित होने की स्तिथि बनने पर प्राणतत्व का आभास मिलता
है. यह कृमि-कीटकों से ऊँची स्तिथि है.
मनोमय स्तिथि विचारशील प्राणियों की होती है. यह और भी
ऊँची स्तिथि है. मननात-मनुष्य:. मनुष्य नाम इस लिए पड़ा है कि यह मनन कर सकता है.
मनन अर्थात चिंतन. यह पशु-पक्षियों से ऊँचा स्तर है. इस पर पहुंचे हुए जीव को
मनुष्य संज्ञा में गिना जाता है. कल्पना, तर्क, विवेचना, दूरदर्शिता जैसी
चिन्तनात्मक विशेषताओं के सहारे औचित्य-अनौचित्य का अंतर करना संभव होता है. (यही
विवेक तत्व का गुण है). स्तिथि के साथ ताल-मेल बैठने के लिए इच्छाओं पर अंकुश रख
सकना इसी आधार पर संभव होता है.
विज्ञानमयकोश इससे भी ऊँची स्तिथि है. इसे भावसंवेदनाओं
का स्तर कह सकते हैं. दूसरों के सुख-दुःख में भागीदार बनने की सहानुभूति के आधार
पर इसका परिचय प्राप्त किया जा सकता है. आत्मभाव का, आत्मीयता का विस्तार इसी
स्तिथि में होता है. अन्तःकरण विज्ञानमय कोश का ही नाम है. (अंतःकरण माने चार
अदृश्य इन्द्रियां –मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त.). दयालु, उदार, सज्जन, सह्रदय,
संयमी, शालीन और परोपकारपरायण व्यक्तियों का अंतराल ही विकसित होता है. उत्कृष्ट
दृष्टिकोण और आदर्श क्रिया कलाप अपनाने की महानता इसी क्षेत्र में विकसित होती है.
चेतना का यह परिष्कृत स्तर, सुपर ईगो, उच्च अचेतन(अवचेतन)
आदि नामों से जाना जाता है. इसकी गति सूक्ष्म जगत में होती है. वह ब्रह्मांडीय
सूक्ष्मचेतना के साथ अपना संपर्क साध सकती है. अद्दृश्य आत्माओं, अविज्ञात हलचलों
और अपरिचित संभावनाओं का आभास इसी स्तिथि में मिलता है. अचेतन ही वस्तुतः व्यक्तित्व
का मूलभूत आधार होता है. इस अचेतन का अभीष्ट उपयोग कर सकना विज्ञानमयकोश के लिए ही
संभव होता है.
आनंदमय कोश आत्मा की उस मूलभूत स्तिथि की अनुभूति है,
जिसे आत्मा का वास्तिविक रूप कह सकते हैं. सामान्य जीवधारी यहाँ तक कि अधिकाँश
मनुष्य भी अपने आपको श्री मात्र मानते हैं और उसी के सुख-दुःख में सफलता-असफलता
अनुभव करते रहतें हैं. आकांक्षाएं, विचारणायें एवं क्रियाएं इसी छोटे क्षेत्र तक
सीमाबद्ध रहतीं हैं. यही भवबन्धन है. इसी कुचक्र में जीव की
विविध-विधि त्रास सहने पड़ते हैं. आनंदमय कोश के जाग्रत होने पर जीव अपने को
अविनाशी, ईश्वर अंश, सत्य, शिव, सुन्दर मानता है. शरीर, मन और साधन एवं संपर्क
परिकर को मात्र जीवनोद्द्येश के उपकरण मानता है. यह स्तिथि ही आत्मज्ञान कहलाती
है. यह उपलब्ध होने पर मनुष्य हर घड़ी संतुष्ट एवं उल्लसित पाया जाता है. जीवनमंच
पर वह अपना अभिनय करता रहता है. उसकी संवेदनाएं भक्तियोग, विचारणायें ज्ञानयोग
जैसी और क्रियाएं कर्मयोग जैसी उच्चस्तरीय बन जाती हैं.
ईश्वर मानवी संपर्क में आनंद की अनुभूति बन कर आता है.
रसो वै सः श्रुति में उस परब्रह्म की उच्चस्तरीय सरसता के रूप में
व्याख्या की है. सत, चित, आनंद की संवेदनाएं ही ईश्वर प्राप्ति कहलाती हैं, अपना
और संसार का वास्तिविक सम्बन्ध और प्रयोजन समझ में बिठा देने वाला तत्वदर्शन
ह्रदयंगम होने पर ब्रह्मज्ञानी की स्तिथि बनती है. इसी को जीवन मुक्ति, देवत्व की
प्राप्ति, आत्मसाक्षात्कार, ईश्वरदर्शन आदि नामों से पुकारते हैं.
आत्मपरिष्कार के इस उच्च स्तर पर पहुँच जाने के उपरान्त
अभावों, उद्वेगों से छुटकारा मिल जाता है. परम संतोष का, परम आनंद का लाभ मिलने
लगने की स्तिथि आनंदमयकोश की जाग्रति कहलाती है. ऐसे ब्रह्मवेत्ता अस्थि-मांस के
शरीर में रहते हुए भी ऋषि, तत्वदर्शी, देवात्मा एवं परमात्मा स्तर तक उठा हुआ
सर्वसाधारण को प्रतीत होता है. उसकी चेतना का, व्यक्तित्व का स्वरूप, सामान्य
नर-वानरों की तुलना में अत्याधिक परिष्कृत होता है, तदनुसार वे अपने में आनंदित
रहते और दूसरों को प्रकाश बांटते हैं.
पंचकोशों का जागरण जीवन चेतना के क्रमिक विकास की
प्रक्रिया है. यह श्रुष्टिक्रम के साथ मंथर गति से चल रही है. यह भौतिक विकासवाद है.
मनुष्य प्रयत्नपूर्वक इस विकास क्रम को अपने पुरुषार्थ से साधनात्मक पराक्रम कर के
अधिक तीव्र कर सकता है और उत्कर्ष के अंतिम लक्ष्य तक इसी जीवन में पहुँच सकता है.
यही पंचकोशी साधना है. कोशों के जाग्रत होने पर व्यक्ति का स्तर कैसा होता है,
इसकी जानकारी शिव गीता में इस प्रकार डे गई है:-
“काम-क्रोध, लोभ-मोह, मद-मात्सर्य यह छः शत्रु और
ममता-त्रष्णा आदि दुषप्रवत्तियां मनोमयकोश में छिपी रहतीं हैं. कोश साधना से उनका
निराकरण होता है. मानसिक स्थिरता आने पर चित्त परब्रह्म परमात्मा में लग जाता है.
पांच कोश जीवात्मा पर चढ़े हुए पाँच आवरण हैं. प्याज़ की,
केले के तने की, परतें जिस प्रकार एक के ऊपर एक होतीं हैं उसी प्रकार आत्मा के
प्रकाशवान स्वरूप को ढंके रहने वाले यह पाँच कोश हैं. उन्हें उतारते चलने पर
कषाय-कल्मष नष्ट होतें हैं और आत्म-साक्षात्कार का, ईश्वर प्राप्ति का परमलक्ष्य
प्राप्त होता है.
उपनिषद् का तत्वदर्शी ऋषि पंचकोश सम्बन्धी जिज्ञासा का
समाधान इस प्रकार करता है “पंचकोशा: के” “अन्नमय कोश, प्राणमय कोश,
मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश और आनंदमय कोश. अन्नमय कोश किसे कहतें हैं? –जो अन्न के
रस से उत्पन्न होता है. जो अन्न रस से ही बढ़ता है और जो अन्नरूप में पृथ्वी में ही
विलीन हो जाते है, उसे अन्नमय कोश एवं स्थूल् शरीर कहतें हैं. प्राणमय कोश किसे
कहतें हैं? –प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान इन पाँच वायुओं के समूह को और
कर्मेंद्रीय पंचक के समूह को प्राणमय कोश कहतें हैं. संक्षेप में यही क्रिया सकती
है. मनोमय कोश क्या है? “मन और पांच
ज्ञानेंद्रीयों के समूह के मिलने से मनोमय कोश बनता है. इसे इच्छा शक्ति कह सकतें
हैं. विज्ञानमय कोश क्या है? बुद्धि और पांच ज्ञानेंद्रीयों का समन्वय विज्ञानमय
कोश है. यह ज्ञान शक्ति है. आनंदमय कोश क्या है? –इसी प्रकार कारण रूप अविद्द्या
में रहने वाला रज और तम के संयोग से मलिन सत्य के कारण मुदित वृत्ति वाला कोश ही
आनंदमय कोश है.
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