क्या है क्रिया और क्या है कर्म ? कर्म की गति अति गहन है, अतः इसकी गहनता को जानना, समझना अति दुष्कर एवं कठिन है. कर्म की धारा में चलकर कब इंसान, पशुता के गहरे पंक में गिर जाता है और कब वह देवत्व की ओर अग्रसर हो जाता है, पता ही नहीं चलता. पता तब चलता है, जब कर्म का परिणाम सामने आने लगता है, परन्तु तब उसे भोगने के अलावा और कोई विकल्प शेष नहीं रहता है. कर्म अपने में अनेक रहस्य छिपाए रहता है. कर्म ही इंसान को बांधता है और कर्म ही बंधन से मुक्ति का कारण बनता है. परन्तु कौन सा कर्म कब भोग बन जाता है और कौन सा मुक्ति का कारण बनता है, यह विवेक दृष्टि से ही जाना जा सकता है. क्रिया और कर्म में भेद है. क्रिया कर्म नहीं है जबकि कर्म में क्रिया का होना आवश्यक है. क्रिया का प्रभाव तात्कालिक होता है और यह हो कर समाप्त हो जाता है ; जबकि कर्म का प्रभाव जन्मों-जन्मों तक रहता है, दीर्घकालिक होता है. क्रिया में किसी भी तरह की इच्छा, भावना अथवा संकल्प का संयोग नहीं होता है. क्रिया इच्छाविहीन होती है. इसमें किसी भी प्रकार की भावना का कहीं भी समावेश नहीं होता. क्रिया के साथ कोई संकल्प-विकल्प का संपुट भी