षट्चक्र एवं उसमे निहित अनूठी ऋद्धि-सिद्धि कुंडलिनी योग के अंतर्गत षट्चक्रों एवं शक्तिपात विधान का वर्णन अनेक ग्रंथों में मिलता है. योगवाशिष्ठ, तेजविन्दुपाद, योगचूडामणि, ज्ञान संकलिनी तंत्र, शिवपुराण, देवी भागवत, शांडिल्यओपनिषद, मुक्तिकोपनिषद, हठयोगसंहिता, कुलार्णव तंत्र, योगिनी तंत्र, घेरंड संहिता, कंठश्रुति, ध्यानविंदुपनिषद, रुद्रयामल तंत्र, योगकुंडलिनी उपनिषद, शारदातिलक आदि ग्रंथों में इस विद्द्या के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है. फिर भी सर्वंपूर्ण नहीं है. उसे इस ढंग से नहीं लिखा गया है कि उस उल्लेख के सहारे कोई अजनबी व्यक्ति साधना करके सफलता प्राप्त कर सके. पत्र्तायुक्त अधिकारी साधक और अनुभवी सुयोग्य मार्गदर्शक की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ही ग्रंथों में इस गूढ़ विद्या पर प्रायः संकेत ही किये गए हैं. तैत्तरीय आरण्यक में चक्रों को देवलोक एवं देव संस्थान कहा गया है. शंकराचार्य कृत आनंदलहरी के १७वे श्लोक में भी ऐसा ही प्रतिपादन है. योगदर्शन समाधिपाद का ३६ वाँ सूत्र है –“किशोकाया: ज्योतिष्मती”. इसमें शोक-संतापों का हरण करने वाली ज्योति शक्ति के रूप में कुंडलि