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Showing posts from January, 2018
षट्चक्र एवं उसमे निहित अनूठी ऋद्धि-सिद्धि कुंडलिनी योग के अंतर्गत षट्चक्रों एवं शक्तिपात विधान का वर्णन अनेक ग्रंथों में मिलता है. योगवाशिष्ठ, तेजविन्दुपाद, योगचूडामणि, ज्ञान संकलिनी तंत्र, शिवपुराण, देवी भागवत, शांडिल्यओपनिषद, मुक्तिकोपनिषद, हठयोगसंहिता, कुलार्णव तंत्र, योगिनी तंत्र, घेरंड संहिता, कंठश्रुति, ध्यानविंदुपनिषद, रुद्रयामल तंत्र, योगकुंडलिनी उपनिषद, शारदातिलक आदि ग्रंथों में इस विद्द्या के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है. फिर भी सर्वंपूर्ण नहीं है. उसे इस ढंग से नहीं लिखा गया है कि उस उल्लेख के सहारे कोई अजनबी व्यक्ति साधना करके सफलता प्राप्त कर सके. पत्र्तायुक्त अधिकारी साधक और अनुभवी सुयोग्य मार्गदर्शक की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ही ग्रंथों में इस गूढ़ विद्या पर प्रायः संकेत ही किये गए हैं. तैत्तरीय आरण्यक में चक्रों को देवलोक एवं देव संस्थान कहा गया है. शंकराचार्य कृत आनंदलहरी के १७वे श्लोक में भी ऐसा ही प्रतिपादन है. योगदर्शन समाधिपाद का ३६ वाँ सूत्र है –“किशोकाया: ज्योतिष्मती”. इसमें शोक-संतापों का हरण करने वाली ज्योति शक्ति के रूप में कुंडलि
पंचकोश और उनका अनावरण मानवी चेतना को पांच भागों में विभक्त किया गया है. इस विभाजन को पांच कोश कहा जाता है. अन्नमयकोश का अर्थ है इन्द्रीय चेतना. प्राणमयकोश अर्थात जीवनीशक्ति. मनोमयकोश- विचार-बुद्धि. विज्ञानमयकोश –अचेतन(अवचेतन) सत्ता एवं भावप्रवाह. आनंदमयकोश -आत्मबोध-आत्मजाग्रति.  प्राणियों का स्तर इन चेतनात्मक परतों के अनुरूप ही विकसित होता है. कीड़ों की चेतना इन्द्रीयों की प्रेणना के इर्द-गिर्द ही घूमती है. उनका ‘स्व’ काया की परिधि में ही सीमित रहता है. इससे आगे की न उनकी इच्छा होती है, न विचारणा, न क्रिया. इस वर्ग के प्राणियों को अन्नमय कह सकते हैं. आहार ही उनका जीवन है. पेट तथा अन्य इन्द्रियों का समाधान होने पर वे संतुष्ट रहतें हैं. प्राणमयकोश की क्षमता जीवनी-शक्ति के रूप में प्रकट होती है. संकल्पबल साहस आदि स्थिरता और दृढ़ता बोधक गुणों में इसे जाना जा सकता है. जिजीविषा के आधार पर ऐसे प्राण मनोबल का सहारा लेकर भी अभावों और कठिनाइयों से जूझते हुए जीवित रहते हैं, जबकि कीड़े ऋतुप्रभाव जैसी प्रतिकूलताओं से प्रभावित होकर बिना संघर्ष किये प्राण त्याग देते हैं. सामान्य पशु-
विभूतियों का जागरण करने वाली योगसाधना सामान्य अर्थों में योग का अर्थ है जोड़ना-मिलाना. साधना के क्षेत्र में यह शब्द आत्मा और परमात्मा को मिलाने वाली पूण्यप्रक्रिया के रूप में प्रयुक्त होता है. उसे सद्ज्ञान और सद्कर्म का समन्वय भी कह सकते हैं. धन और ऋण तार मिलने से विद्दुत धारा प्रवाहित होती है. दोनों तारों में वह बहती तो पहले से है मगर उसका परिचय जभी मिलता है जब दोनों का मिलन हो. संसार में सबसे बड़ा दुःख वियोग है. प्रियजनों से बिछुड़ जाने पर जितना कष्ट होता है उतना अन्यत्र कहीं भी-कभी भी नहीं होता है. आत्मा को अपने परमप्रिय परमात्मा से विलग होने पर लगातार पग-पग पर कुकर्म घेरे रहतें है और शोक, संताप और दुःख देते हैं. इस दुःख-संताप का सुख-शांति में परिवर्तन, वियोग को योग में बदलने पर ही होता है. मोटे शब्दों में भौतिक और अध्यात्म का समन्वय योग कहा जा सकता है. साधनों की कमी नहीं. निर्धन कहलाने वाले व्यक्ति के पास भी शरीर, मन, बुद्धि, प्रतिभा आदि साधन होतें हैं. सहयोग, प्रभाव और सम्पर्क भी हर किसी को न्यूनाधिक मात्रा में उपलब्ध रहता ही है. धन तथा अन्य साधन भी कमोवेश होते ही हैं. यह
अवचेतन को प्रभावित-परिष्कृत करने का विज्ञान का प्रयास उत्थान और पतन का सम्बन्ध आमतौर से सम्बंधित व्यक्तियों और प्रस्तुत परिस्तिथियों के साथ जोड़ा जाता है, पर वस्तुतः ऐसी बात नहीं है. मनुष्य की अपनी मनोवृत्ति, आस्था, आदत, रूचि ही वह धुरी है जिसके इर्द-गिर्द परिस्तिथियाँ घूमती हैं और भावी संभावनायें जुडी रहती हैं. अब परिस्तिथियों को सुधारने के लिए यह आवश्यक समझा जाने लगा है कि व्यक्तित्व को सुधरने व सँभालने वाली मन:स्तिथि उत्पन्न की जाये. मनाह्शास्त्री इस दिशा में अपने ढंग से प्रयत्नशील हैं. वे स्वध्याय सत्संग,चिंतन,मनन के क्रिया कलाप को दार्शनिकों और लोकशिक्षकों के लिए छोड़ देते हैं और यह प्रयत्न करते हैं कि विद्दुतीय अथवा रासायनिक प्रक्रिया के सहारे मस्तिष्क को प्रभावित करके उसे बलात वशवर्ती बनाया जाये और जिस दिशा में भी किसी को चलाया जाना हो उसी के अनुरूप उसकी मस्तिष्कीय स्तिथि में हेर-फेर कर दिया जाये. ऐसा करने से किसी को समझाने-बुझाने या बताते-मनाने की आवश्यकता न रहेगी वरन एक सामान्य यंत्र की तरह मस्तिष्क का उपयोग करके अमुक रीति से सोचने को बाध्य किया जायेगा. फिर विचारात्म
अतिवादी चिंतन और बढ़ता पागलपन शारीरिक रोगों की तरह अब मानसिक रुग्णता भी आम बात है. शरीर पर कुपोषण, प्रकृति विरोधी दिनचर्या को आधारभूत करण मान लिया गया है और चिकित्सा उपचार के अतिरिक्त जीवनचर्या में हेर-फेर करने की आवश्यकता को भी लोग समझने लगे हैं किन्तु बढ़ते हुए पागलपन का कारण मोटे रूप में समझ में नहीं आता है क्योकि न तो लोगों ने इसे गंभीरतापूर्वक इस विषय में विचार किया है और न इस सन्दर्भ में समझने, समझाने को कोई ठोस प्रयास हुआ है. शरीरगत रोगों के निवारण के सम्बन्ध में जितनी कुछ उलटी-सीधी जानकारी है उतनी मनोरोगों के सम्बन्ध में नहीं फिर भी इस विषय में कोई उपयोगी साहित्य भी तो नहीं लिखा गया और न पागलखानों के अतिरिक्त निजी उपचार ग्रहों का स्थापन-प्रचलन हुआ है. पर्यवेक्षण से पता चलता है कि प्रायः एक तिहाई लोग न्यूनाधिक् रूप से विक्षिप्त या अर्धविक्षिप्त बन कर रह रहे हैं. आरंभिक स्तिथि में उनके लक्षणों को स्वभावगत दोष मानकर घटना विशेष के सम्बन्ध में समझाने-बुझाने, डाटने-डपटने या बोल-चाल बंद कर देने जैसी प्रतिक्रिया भर व्यक्त की जाती है. यह नहीं देखा जाता कि इस प्रकार के अटपटेपन क