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Showing posts from December, 2017
रजोगुणी मन के लक्षण रजोगुणी मन के ग्यारह लक्षण होते हैं:- ०१. कामना (कर्म का अभिमान) ०२. तृष्णा (सुख की इच्छा) ०३. दंभ  ०४. कामुकता  ०५. असत्य भाषण  ०६. अधीरता  ०७. अधिक आनंद  08. भ्रमण  ०९. भेद बुद्धि १०. विषय तृष्णा  ११. मन जनित उत्साह  फल  ०१. क्रिया-कर्म में तत्पर  ०२. बुद्धि डगमगाती है  ०३. चित्त चंचल और अशांत रहता है.  ०४. शरीर अस्वस्थ रहता है. ०५. मन भ्रम में पढ़ जाये.  प्रभाव  ०१. आसक्ति (भेद बुद्धि) ०२. प्रवत्ति में विकास से दुःख  ०३. कर्म-यश-संपत्ति से युक्त होता है. अनिवार्य कार्य प्रणाली  ०१. शरीर में मौजूद प्राण (उपप्राण) का परिष्कार किया जाये. ०२. उच्च स्तरीय प्राणों को ग्रहण किया जाये. ०३. उसका संवर्धन किया जाये. प्रक्रिया  ०१. मन्त्र-जप  ०२. प्राणायाम  ०३. उच्च चिंतन ०४. भावमयी पुकार 
मन की संरचना मन के तीन आयाम हैं. इनमे से पहला आयाम चेतन (जाग्रत अवस्था) है. जिसमे हम अपने सभी इच्छित कार्य करते हैं. इसका दूसरा आयाम अचेतन है जो कि सभी अनैक्षित कार्य करते है. यहाँ शरीर की उन सभी कार्यों का संपादन होता है जिनके लिए हमें कोई इच्छा नहीं करनी पढ़ती है. जैसे रुधिर सञ्चालन, पलको का गिरना, पाचन क्रिया. हारमोंस का निकलना वगैरा वगैरा. हमारी नींद भी इसी से सम्बन्ध रखती है, तीसरा आयाम है अतिचेतन. इन तीनों आयामों वाला मन ठीक भौतिक पदार्थ की भांति है. भौतिक पदार्थों में भी मन के तीन आयामों की भांति लम्बाई, चौड़ाई व् गहराई के तीन आयाम होते है. मन व् पदार्थ में तात्विक रूप से कोई भेद नहीं है. मन एक सूक्ष्म पदार्थ है और पदार्थ एक स्थूल मन है. तीन आयामों वाले मन में सामान्यतया हमारा सम्बन्ध केवल सतही या ऊपरी आयाम से होता है. चेतन मन से हम सामान्य जीवनक्रम से संबधित होते हैं. हमारी नींद व् सपने तो अचेतन मन से सम्बंधित होते हैं जबकि ध्यान और आनंद का सम्बन्ध हमारे अतिचेतन मन से होता है. वैसे कठिन है अचेतन तक पहुचना फिर करीब करीब असंभव है अतिचेतन तक पहुचना जो की वैसा ही है ज
षटचक्र भेदन साधना का दूसरा चक्र “स्वाधिष्ठान चक्र” विषयासक्ति से मुक्ति – स्वाधिष्ठान की सिद्धि संस्क्रत भाषा में ‘स्व’ का अर्थ है ,’अपना’ और ‘अधिष्ठान’ का तात्पर्य है , ‘रहने का स्थान’. इस तरह स्वाधिष्ठान का शाब्दिक अर्थ है ‘अपने रहने का स्थान’. यह चक्र मूलाधार के ठीक ऊपर स्थित है. इसका सम्बन्ध स्थूल शरीर में प्रजनन तथा मूल संस्थान से है. शरीर विज्ञान की द्रष्टि से यह प्रोस्टेट ग्रंथि के स्नायुओं से सम्बंधित है. इसकी स्थिति हड्डी के नीचे कक्सिक्स के स्तर पर अनुभव की गयी है. दरअसल यह हड्डियों के एक छोटे बल्ब की तरह है, जो गुदाद्वार के ठीक ऊपर है. पुरुषों और स्त्रियों दोनों में ही इसकी स्थिति मूलाधार के अत्यन्त नजदीक है. योग-साधना के द्रष्टि से स्वाधिष्ठान चक्र को व्यक्ति के अस्तित्व का आधार माना गया है. मस्तिष्क में इसका प्रतिरूप अचेतन मन है , जो संस्कारों का भरा-पूरा भण्डार है. आध्यात्म वेत्ताओं का मानना है कि प्रत्येक कर्म , पिछला जीवन, पिछले अनुभव अचेतन में संग्रहित रहते हैं. इस सभी का प्रतीक स्वाधिष्ठान चक्र ही है. तंत्र शाश्त्रों में पशु तथा पशु नियंत्रण जैसी एक धारणा ह
मन:शक्ति संवर्धन में योग निद्रा का उपयोग मानसिक विकास में एक अति उपयोगी प्रयोग ही, मन:संस्थान को शिथिल कर देना. शरीर का पूर्ण शिथलीकरण, प्रक्रति प्रदत्त निद्रा, उसी के सहारे मनुष्य अपना जीवन यापन करता है और अगले दिन के लिए कार्यकारी शक्ति प्राप्त करता है. निद्रा में व्यधान मनुष्य को अशक्त और विक्षुब्ध दिखाई पड़ता है. जिन्हें गहरी नींद आती है वे सामान्य आहार-विहार उपलब्ध होते हुए भी निरोग और बलिष्ठ बने रहते हैं. मानसिक क्षमता भी उनकी बढ़ी-चढ़ी रहती है. अधिक गहरी नींद जिसे प्रसुप्ति भी कहते हैं दुर्बलों और रोगियों को जीवन प्रदान कर सकती है. आहार और निद्रा दोनों वर्गों की उपयोगिता लगभग समान अवसर की मानी जाती है. मन:संस्थान की उच्च स्तरीय परतों की निद्रा का अपना महत्व है. यदि उसे उपलब्ध किया जा सके तो इस दिव्य संस्थान को अधिक स्वस्थ एवं अधिक समर्थ बनने का अवसर मिल सकता है.   मन की दो प्रमुख परतें है, एक सचेतन दूसरी अचेतन. सचेतन ही सोच-विचार करता है और वह रात्रि को नींद में सोता भी है. अचेतन का कार्य संचालन की समस्त स्वसंचालित गति विधियों की व्यवस्था बनानी पढ़ती है. श्वास-प्रश्वास,
षटचक्र भेदन की साधना –प्रथम चक्र आधार (मूलाधार) चक्र कामबीज का ज्ञानबीज में रूपांतरण चक्र संस्थान के मूल में स्तिथ रहने के कारण मूलाधार चक्र्योग का आधार है. इससे हमारे समूचे अस्तित्व का मूल प्रभावित होता है. जीवन के स्पंदन श्थूल देह के माध्यम से ही ऊपर की ओर बढ़ते हैं और अंतिम छोर सहस्त्रार चक्र में पहुँच कर व्यक्ति के जागरण की चरम सीमा के रूप में बदल जाते हैं. सांख्य दर्शन में मूलाधार को मूल पृक्रति कहा गया है. बात सही भी है, सम्पूर्ण संसार और सभी सांसारिक पदार्थ का एक आधार तो होगा ही, जहाँ से उसका विकास प्रारंभ होता है और जहाँ विनाश के पश्चात उसका विलय हो जाता है. सब तरह के विकास का मूल स्त्रोत मूल पृक्रति है. मूल पृक्रति के आधार के रूप में मूलाधार ही बाह्य जगत की सम्पूर्ण संरचना के लिए उत्तरदायी है. योग और तंत्र विज्ञान के अनुभवी साधकों के अनुसार मूलाधार कुंडलनी शक्ति का वह स्थान है, जहाँ उच्च आध्यात्मिक अनुभूतियों के प्रकटीकरण की अपार क्षमताएं समाई हैं. आध्यात्मवेत्ताओं के अनुसार यह बड़ी शक्ति एक कुंडली मारे सर्पिणी के रूप में सुप्तावस्था में है. जब यह शक्ति जाग्रत होती है
आनंदमयकोश की साधना आनंद से समाधि, स्वर्ग और मोक्ष तक ईश्वर आनंदस्वरूप है. उसके अविनाशी अंश जीव के कण-कण में भी आनंद व्याप्त है. इश्वर की चिर संगनी पृकति में सौन्दर्य एवं सुविधा प्रदान करने की आनंदमयी विशिष्टता भारी पडी है. यहाँ सर्वत्र आनंद ही आनंद है. आनंद का यह कोश हममे से हर एक को असीम मात्रा में उपलब्ध है. निश्चित रूप से जीवन आनंदमय है और हम सब आनंदलोक में रह रहें हैं. इस अपरिमित सौभाग्य के साथ दुर्भाग्य भी लगबघ वैसा ही है , जैसा बाबा कबीर अपनी एक उलटबांसी में कह गए है:- “ पानी बिच मीन प्यासी, मोहि लखि-लखि आवे हांसी.” यह उलटबांसी सुनने में उलटी है , पर समझने में बड़ी सीधी और सच है. आनंदलोक में रहते हुए भी हममे से प्रायः सभी आनंद से वंचित हैं. यह सच्चाई कुछ वैसी है है , जैसे कोई व्यक्ति अपने घर का ताला बंद कर के कही चला जाय . लौटने पर चाबी गुम हो जाने के कारण बहार बैठा ठण्ड में सिकुड़े और दुःख भोगे. ठीक ऐसी ही दशा अपनी भी है. अमन्द्मय्कोश अपने में ही है पर इसकी चाबी खो जाने के कारण रहना पड़ रहा ही निरानंद स्तिथि में. कैसी विचित्र स्तिथि है ! कैसी विडंबना है ! यह अपने ही साथ
विज्ञानमयकोश की साधना आत्मानुभूति योग है आधार विज्ञानमयकोश का विज्ञान का अर्थ है -विशेष ज्ञान उपनिषदों में वरुण और भृगु की कथा में विज्ञानमयकोश के इस सत्य का बड़े ही मार्मिक ढंग से बखान किया है. भृगु पूर्ण विद्वान् थे. वेद शाश्त्रों का उन्हें भली-भांति ज्ञान था. फिर भी उन्हें मालूम था की वे आत्मज्ञान के विज्ञान से वंचित हैं. इस विज्ञान को पाने के लिए उन्होने वरुण से प्राथना की. वरुण ने महर्षि भृगु को कोई शाश्त्र नहीं सुनाया , कोई पुस्तक नहीं रटाई और न ही कोई प्रवचन सुनाया. बस उन्होने एक बात कही “ योग-साधना करो”. योग-साधना करते हुए भृगु ने एक-एक कोश का परिष्कार करते हुए विज्ञान को प्राप्त किया. इस सत्य कथा का सार यही है कि ज्ञान का दायरा सिर्फ जानकारी पाने-बटोरने तक ही सिमटा है , जबकि विज्ञान का एक सिर्फ एक ही अर्थ ---अनुभूति है. इसीलिए विज्ञानमयकोश की साधना को आत्मानुभूति योग भी कहा है. आत्मविद्द्या के सभी जिज्ञासु यह जानते है कि आत्मा अविनाशी है , परमात्मा का सनातन अंश है. परन्तु इस सामान्य जानकारी का एक लघु कण भी उनकी अनुभूति में नहीं आता. शरीर के लाभ के लिए आत्मा के लाभ
मनोमयकोश की साधना ध्यानयोग बनाता है मन को नंदनवन “मन का मंथन ही मनोमयकोश का ध्यानयोग है” इस सूत्र वाक्य पर जितनी गहनता और गहराई से विचार किया जायेगा, मनोमयकोश का साधना विज्ञान उतना ही सुस्पष्ट होगा. मनोमयकोश की साधना का प्रारंभ मानसिक क्षेत्र की धुलाई-सफाई से होता है , लेकिन बाद में इसका विस्तार उसे समुन्नत, सुसज्जित एवं सुसंस्क्र्त बनाने तक जा पहुचता है. अतीन्द्रीय शक्तिओं का विकास एवं दिव्य क्षमताओं का उभार भी इसी क्रम में होता है. इसकेलिए क्या किया जाये ? इस प्रश्न का उत्तर है—मनोंयकोश की साधना की योजना बनाकर अपने इर्द-गिर्द ऐसा दिव्य वातावरण बनाना है, जिसके संपर्क में अंतरात्मा को दिव्य अनुभूतियों का रस मिलने लगे. वर्तमान के पतनक्रम को उत्कर्ष में कैसे बदला जाये ? इस प्रश्न का सुनिश्चित उत्तर एक ही हो सकता है की वातावरण बदला जाये. मनोमयकोश की साधना द्वारा हम ऐसी मन:स्तिथि विनिर्मित करे, जो परिस्तिथियो को दिव्य बनाने में सहायक सिद्ध हों. ऐसा दिव्य लोक कही है नहीं, उसे तो अपनी साधना से स्वयं बनाना पड़ता है. किसी की अनुग्रह से यह कार्य जादू की छड़ी घुमाने जैसी किसी क्रिया-प्र
अन्नमय कोश (मूलभूत आधार) की शुद्धि योग-साधना के अंतर्गत जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए अन्नमयकोश के परिष्कार को पर्याप्त महत्व दिया गया है. शाश्त्रों में इसके अनेक लाभों और सिद्धियों का वर्णन किया गया है. अन्नमयकोश की योगसाधना के द्वारा ही योगी आरोग्य के साथ साथ शरीर पर अदभुत अधिकार प्राप्त कर लेते है. इच्छानुसार शरीर को गरम या ठंडा रखना , ऋतुओं के प्रभाव से अप्रभावित रहना , शरीर की उर्जा-पूर्ती के लिए आहार पर आश्रित न हो कर प्राक्रतिक स्त्रोतों से प्राप्त कर लेना, दीर्घजीवन , शरीर की वृद्धाअवस्था के चिन्ह न उभरना आदि सभी उपलब्धियां अन्नमयकोश की योग-साधना पर निर्भर है. ये सभी उपलब्धियां योग की उच्चस्तरीय कक्षा में पहुचने के लिए काफी उपयोगी सिद्ध होती है. इनकी अनिवार्यता इस लिए है कि योग-साधना के लिए आवश्यक साधनाक्रम में शरीर अपनी असमर्थता प्रकट करके साथ देने से कतराने न लगे. अन्नमयकोश के पुष्ट और शुद्ध होने पर ही व्यक्ति सांसारिक उतार चदाव के बीच अपनी शरीर-यात्रा को संतुलितक्रम से चलाता हुआ, अपने आत्मिक लक्ष्य की ओर अनवरत क्रम से आगे बढ़ सकता है. अन्नमयकोश की योग-साधना का ए