षटचक्र भेदन का चौथा चरण अनहद
चक्र साधना
आध्यात्मिक जागरण के साथ
भावनात्मक संतुलन भी
अनाहत का शाब्दिक अर्थ है, जो
आहात न हुआ हो. यह नाम इसलिए है , क्योंकि इसका सम्बन्ध ह्रदय से है , जो लगातार
आजीवन लयबद्ध ढंग से तरंगित और स्पंदित होता रहता है. योग्शाश्त्रों के विवरण के अनुसार अनाहद एक ऐसी
अभौतिक एवं अनुभवातीत ध्वनि है , जो निरंतर उसी प्रकार नि:स्रुत होती रहती है, जिस
प्रकार ह्रदय जन्म से मृत्यु तक लगातार स्पंदित होता रहता है.
योगियों ने अनाहत चक्र को
मेरुदंड की आंतरिक दीवारों में वक्ष के केन्द्र के पीछे अनुभव किया है. इसका
क्षेत्र ह्रदय है. योग साधकों ने इस चकर को ह्रदयाकाश भी कहा है, जिसका अर्थ है ,
ह्रदय के बीच वह स्थान , जहाँ पवित्रता निहित है. जीवन की कलात्मकता एवं कोमलता से
भी इसका गहरा सम्बन्ध है.
अनाहत चक्र की रहस्यमयी
शक्तियों का प्रतीकात्मक विवरण योग्शाश्त्र के निर्माताओं का प्रीतिकर विषय रहा
है. इस विवरण के अनुसार अनाहत चक्र का रंग बंधूक पुष्प की तरह है जबकि कुछ अनुभवी
साधकों ने इसे नीले रंग का देखा है. इसकी बारह पंखुडियां हैं और हर पंखुड़ी पर
सिन्दूरी रंग के बारह वर्ण “ कं, खं, गं, घं, अंग, चं, छ, जं, झं, ईया, ट, ठ.
अंकित हैं.
इसका आंतरिक क्षेत्र चतुष्कोण
संरचना है, जो वायु तत्व को प्रतीकात्मक रूप से दर्शाता है. यह षटकोण क्षेत्र दो
अंतर्ग्रंथित त्रिकोणों से मिल कर बना है , जो शिव और शक्ति के मिलन का प्रतीक है.
उल्टा त्रिकोण शक्ति और सीधा त्रिकोण शिव का प्रतीक है. इसक वाहक एक काला हिरन है
जो चौकन्नेपन और फुर्तीलेपन के लिया जाना जाता है. इसके ऊपर गहरे भूरे रंग का ‘यं’
बीज मन्त्र अंकित है. मन्त्र के इस बिंदु के ऊपर सूर्य की भांति कान्तिमान देव ईश
का निवास है. उनके साथ पीले रंग की सर्वजनहितकारी देवी काकिनी विराजमान हैं. इनके
चार हाथ और तीन नेत्र हैं और ये सौभाग्यप्रदायनी व आलाहदकारणी हैं.
अनाहद कमल की फलभित्ति के
केन्द्र में एक उल्टा त्रिकोण है, जिसमे अखंडज्योति प्रज्वलित रहती है. वह
अखंडज्योति ही अपनी जीवात्मा है. अनाहत के मुख्य कमल के नीचे एक और लाल पंखुड़ियों
वाला कमल है, जिसमे कल्पतरु है. अनके योगियों का विचार है अनाहत में स्तिथ कल्पतरु
या शांत झील पर ध्यान करना चाहिए. अनाहत का लोक महालोक है, यह अविनाशी जगत का
प्रथम स्तर है. इसकी तन्मात्रा (संवेदना)
“स्पर्श” है.
इस ह्रदय केन्द्र में ही विष्णु
ग्रंथि का वास स्थान है, जो आध्यात्मिक स्तर पर जीने की भावना का प्रतिनिधित्व
करती है. यह विष्णु ग्रंथि आध्यात्मिक जागरण के साथ ही भावनात्मक संतुलन और
व्रद्धि में सहायक होता है. ऐसा अनेक साधकों का अनुभव है कि जो साधक ह्रदयकमल पर
ध्यान करता है, उसके कर्म अपने आप ही श्रेष्ठ हो जाते हैं. उसकी इन्द्रियां पूरे
तरह से उसके नियंत्रण में होती है तथा वह गहन ध्यान करने में सक्षम होता है.
अनहत चक्र का सीधा सम्बन्ध
मनोमय शरीर से है. यह बडा विलक्षण किन्तु अनुभवसिद्ध सत्य है कि योग में जितनी भी
सिद्धियों का वर्णन है , वो सब की सब इसी मनोमय शरीर में प्रकट होती हैं. हालाँकि
योग साधक अपनी भावसाधना के विकास के लिए इन सिद्धियों के मायाजाल में नहीं पड़ते,
क्योकि इन सिद्धियों का थोडा सा भी आध्यात्मिक मूल्य नहीं है.
स अनाहत चक्र की साधना के पीछे
वर्णित सभी चक्रों के साधना से सर्वथा परे है. इस स्तर पर योग साधक को इस तथ्य का
पूरा ज्ञान रहता है कि भाग्य है, फिर भी उसे पूर्णतया: बदला जा सकता है. यह
अन्तरिक्ष में कुछ फेकने की बात है. यदि किसी पदार्थ को अन्तरिक्ष में कुछ इस गति
से फेका जाये कि वह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बाहर चला जाये, तो उसे फिर यह
पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति उसे वापस नहीं खीच पायेगी. ठीक इसी भांति अनाहत चक्र की
साधना करने वाले साधक की चेतना का स्तर इतना ऊँचा उठ जाता है कि वह अपने प्रारब्ध
पर आधारित न होकर पूर्णतया आत्मविश्वास एवं अपनी चेतना शक्ति के साथ होता है.
अनाहत चक्र की साधना, इसका
परिशोधन व जागरण कैसे करे? यह प्रश्न प्रत्येक जिज्ञासु और साधक का होगा.. इसके
उत्तर में यहाँ इतना ही कहना है कि प्राचीन योग-शाश्त्रों और साधना-सम्प्रदायों
में इस चक्र की साधना विधियाँ अनेकों हैं. उन सबका अपना अपना महत्व भी है जिससे न
इन्कार किया जा सकता है और न नकारा जा सकता है. यहाँ अनाहत चक्र की साधना की उस
विधि को स्पष्ट करने का मन है, जो पूर्वोक्त सभी विधियों की अपेक्षा सहज, सरल,
सुगम और निरापद है. इस विधि को अपनाने वाले साधक सर्वथा अभय होकर अनाहत चक्र और
उससे सम्बंधित मनोमय शरीर की उपलब्धियों से लाभान्वित हो सकते है.
यह साधना विधि गुरु भक्ति है.
अपने ह्रदय कमल में सद्गुरु की दिव्य मूर्ति का ध्यान करने से अनाहत की शक्तियां
प्रकट होने लगतीं हैं. ध्यान का यह अभ्यास प्रातः या सायंकाल कभी भी किया जा सकता
है. इसे जब भी किया जाये नियमित एवं निर्धारित समय पर लगातार लम्बे समय तक किया
जाये. इस साधना क्रम में सबसे अनिवार्य तत्व है , सद्गुरु के प्रति भक्ति , मात्र
ध्यान के क्षणों में ही नहीं , बल्कि अहिर्निश उभरती व उफनती रहनी चाहिए.
यह सुनिश्चित तथ्य है कि अनाहत
चक्र की साधना करने वालों के जीवन में अहंकार का कोई स्थान नहीं होना चाहिए. इस
साधना की प्रक्रिया इतनी सूक्ष्म होती है कि सद्गुरु की चेतना कब, कैसे और किन
तरीकों से समाप्त कतरी है कि पता ही नहीं चलता. यहाँ यह बलपूर्वक एवं पूरे
विश्वासपूर्वक कहा जा रहा है कि अनाहत चक्र के जागरण के लिए अनाहत कमल पर सद्गुरु
की दिव्य मूर्ति से बढ़कर अन्य कोई श्रेष्ठ साधना और कोई नहीं.
इस साधना का अभ्यास यदि नियमित
रूप से एक वर्ष किया जा सके, तो अनाहत चक्र के जागरण के लक्ष्रण प्रकट होने लगते
हैं. इस चक्र के जागरण से साधक औरों की प्रेरणा स्त्रोत्र बन जाता है. उसमे अतीन्द्रीय द्रष्टि,
अतीन्द्रीय श्रवण या मनोगतिज़ क्षमता उत्पन्न हो जाती है. वह लोगों को अपने अथाह
प्रेम से जीत सकता है. उसमे दूसरों के विचार और अनुभवों के प्रति प्रखर
संवेदनशीलता जाग जाती है. साथ ही उसमे सभी तरह से आसक्ति समाप्त हो जाती है. उसे न
कोई चाहत सताती है और न चिंता. बस उसे तो एक ही धुन लगी रहती है कि अपने सद्गुरु
की कृपा के भरोसे चेतना के अगले स्तर पर गति कैसे हो ? इस भावना के प्रगाढ़ होने पर
अगला चरण विशुद्धि चक्र (कंठ चक्र) की साधना प्रस्फुटित होती है.
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