चित्त की चंचलता का रूपांतरण है
समाधि
अंतर्यात्रा विज्ञान योगसाधकों की अंतर्यात्रा को
सहज-सुगम, प्रकाशित व प्रशस्त करता है. इसके प्रयोग प्राम्भ में भले ही प्रभावहीन
दिखें, पर परिपक्व होने के बाद परिणाम चमत्कारी सिद्ध होतें हैं. जो निरंतर
साधनारत हैं , जिनके तन, मन, प्राण चित्त व चेतना योग में लय प्राप्त कर चुकी है,
वे सभी इसके मर्म को भली भांति अनुभव करते हैं. चित्त शुद्धि अथवा चित्त वृत्ति
निरोध कहने में भले ही एक शब्द लगे, लेकिन इस अकेले शब्द में योग के सभी चमत्कार,
सिद्धियाँ एवं विभूतियाँ समाई हैं. जो साधना पथ पर गतिशील हैं, वे सभी इस सच्चाई
से सुपरिचित हैं और इसी वजह से कोई भी विवेकवान, विचारशील, योगसाधक कभी भी किसी
चमत्कार या विभूति के पीछे नहीं भागता, बल्कि सदा ही वह स्वयं को पवित्र, प्रखर व
परिष्कृत करने में लगा रहता है.
पूर्व में भी अंतर्यात्रा के अन्तरंग साधनों की चर्चा हो
चुकी है, जिसमे यह कहा गया ये अन्तरंग
साधन अन्तरंग होते हुए भी निर्बीज समाधि की तुलना में बहिरंग हैं. दरअसल
योग साधन का बहिरंग या अन्तरंग होना योग साधक की भावदशा एवं चेतना की अवस्था पर
निर्भर है. जिसकी वृत्तियाँ बहिर्मुखी है, वह अनेक प्रयत्नों के बावजूद सूक्ष्म व
आतंरिक साधनों व साधना का प्रयोग नहीं कर पाता यही वजह है कि योग-साधना
बहिरंग-साधनों से प्रारंभ होकर क्रमिक रूप से आतंरिक व अन्तरंग होती है. बाद की
परिपक्व अवस्था में तो समाधि ही साधना बन जाती है और साधक क्रमिक रूप से इसके
उच्चतर व उन्नत तलों पर अधिकार प्राप्त करता है.
इसमें सहायक व बाधक संस्कारों का सच अगले सूत्र में
महर्षि पतंजलि ने स्पष्ट किया है –“ निरोध परिणाम मन का वह रूपांतरण
है, जब मन में निरोध की अवस्तिथि व्याप्त हो जाती है. जो तिरोहित हो रहा है – भाव
संस्कार और उसके स्थान पर प्रकट हो रहे भाव विचार के बीच क्षण मात्र को घटित होता
है. “
महर्षि के इस सूत्र में साधना है, सिद्धि है और साधक का
स्वरूप है. इसी के साथ साधना पथ की बाधाएं हैं और सहायतायें हैं. संक्षेप में इस
सूत्र का सत्य व तत्व यही है कि यदि इस सूत्र की सम्पूर्ण गहराई- समूची ऊंचाई व
सारी की सारी की लम्बाई की नाप कर ली जाय तो समझ लो कियोग साधन का सम्पूर्ण
विज्ञान-विधान समझा जा सका. इन पंक्तियों में जो कुछ कहा गया है, उसे तनिक भी
अतिशयोक्तपूर्ण नहीं समझना चाहिए, क्योंकि इस अनूठे सूत्र की महत्ता व गरिमा ही
ऐसी है.
इस सूत्र की सच की गहराई परखें तो इसमें मूलभूत चार बातें
हैं :-
१.
व्युत्थान संस्कार
२.
निरोध संस्कार
३.
निरोध क्षण
४.
निरोध परिणाम
इन चार बातों को यदि ढंग से समझ लिया जाये , इन्हें
आत्मसात कर लिया जाये तो योग साधना के विज्ञान का आधारभूत ढांचा सुस्पष्ट हो जाता
है. इसमें सबसे पहली बात जिसे समझना है –वह है व्युत्थान संस्कार :- इसमें
व्युत्थान का मतलब ही है विचलन, विचारों की आवा-जाही से उपजी चंचलता. यही है हमारे
मन की सामान्य अवस्था. इसी अवस्था में हम सब रोज की जिन्दगी जीतें हैं. एक विचार
आता है तो मन उसके द्वारा ऐसे आच्छादित हो जाता है, जैसे आकाश में कोई बादल छा गया
हो. हालांकि कोई विचार स्थाई नहीं होता. क्योंकि विचार का स्वभाव ही
अस्थायी है. व्युत्थान संस्कार की इस अवस्था से हम सभी इतने अभ्यस्त
हो चुके हैं कि हम सबने इसे ही अपने मन का स्वभाव मान लिया है.
लेकिन मन का, चित्त का एक स्वभाव और भी है जो निरोध
संस्कार के रूप में प्रकट होता है. निरोध संस्कार है तो विरल भाव
दशा, लेकिन यह अपनी झलक दिखा ही देती है. यह ऐसी अवस्था है, जैसे आकाश
में कोई बादल न हो आसमान पूरा कि पूरा साफ़-स्वच्छ हो. ऐसी दुर्लभ-विरल अवस्था ही
योग साधना में सच्ची सहायक है. योगीजन इसी भाव दशा में जीतें हैं. यह
है मन की निर्विचार अवस्था. यहाँ विचारों की कोई भी आवाजाही नहीं होती यह निर्विचार
सड़क को वाहन रहित हो जाना, मन की ऐसी दशा निरोध संस्कार कहलाती है.
इसकी पहली झलक मिलती है (३) निरोध क्षण यह
क्षण बड़ा ही मत्वपूर्ण होता है. जब एक विचार जा रहा होता है, उसकी जगह दूसरा विचार आ रहा
होता है, तब इस दोनों विचारों के बीच एक बडा सूक्ष्म अन्तराल होता है, जब हम सचमुच
ही निर्विचार अवस्था में होतें हैं. उस क्षणिक अन्तराल में बादल रहित आकाश की तरह
चित्त स्वच्छ होता है. अगर कोई उस समय जागरूक हो, होश में रहे तो इसे देख सकता है.
इसी को महिर्षि ने निरोध क्षण कहा है
निरोध क्षण के बाद इस महत्वपूर्ण सूत्र का चौथा तत्व है (४)
निरोध परिणाम यह है चित्त की रूपांतरित अवस्था. ऐसी अवस्था जिसमे
व्युत्थान संस्कार शांत व शमित होतें हैं. इनकी कोई सक्रियता नहीं होती. जबकि
निरोध संस्कार यानि की निर्विचार भाव दशा से मन संपूर्णतया आच्छादित रहता है. इस
निरोध परिणाम पाने के लिए साधक को निरोध क्षण को अपने ध्यान का विषय बनाना होगा.
दरअसल यह ध्यान की सबसे महत्वपूर्ण विधि है. ऐसी विधि जिसमे बस शांत व साक्षी बन
कर आते-जाते विचारों को देखना होता है. शुरुआत में यह कठिन होता है, पर बाद में
इसका अभ्यास होने लगता है और तब समझ में आता है, विचारों का अंतराल, महिरिशी की
भाषा में निरोध क्षण.
इसी पर अपना ध्यान केंद्रित करना होता है. काफी कठिन
प्रयास के बाद यह संभव हो पता है. जब ऐसा होने लगता है तब पता चलता है कि धीरे-धीरे
यह अंतराल बढ़ता जा जा रहा है और विचारों की आवाजाही, रेल-पेल विचारों की भाग दौढ़ कम
होती जा रही है और उन्ही विचारों के अन्तराल में समाधि की पहली झलक मिलने लगती है
. युग-ऋषि परमपूज्य गुरुदेव अपनी आध्यात्मिक वार्ताओं में
कहते थे कि अगर तुम्हे एक बार भी विचारों के बीच के अन्तराल का आनंद मालूम हो जाता
है तो एक अदभुत आनंद की वर्षा हो जाती है. और जब सतत ध्यान से यह शून्यता स्थाई बन
जाती है तब यह आनंद भी सदा-सदा के लिए तुम्हारा अपना हो जाता है, यही तो है निरोध
का परिणाम. ऐसी रूपांतरित अवस्था स्थाई हो जाती है.
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