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अन्नमय कोश (मूलभूत आधार) की शुद्धि
योग-साधना के अंतर्गत जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए अन्नमयकोश के परिष्कार को पर्याप्त महत्व दिया गया है. शाश्त्रों में इसके अनेक लाभों और सिद्धियों का वर्णन किया गया है. अन्नमयकोश की योगसाधना के द्वारा ही योगी आरोग्य के साथ साथ शरीर पर अदभुत अधिकार प्राप्त कर लेते है. इच्छानुसार शरीर को गरम या ठंडा रखना , ऋतुओं के प्रभाव से अप्रभावित रहना , शरीर की उर्जा-पूर्ती के लिए आहार पर आश्रित न हो कर प्राक्रतिक स्त्रोतों से प्राप्त कर लेना, दीर्घजीवन , शरीर की वृद्धाअवस्था के चिन्ह न उभरना आदि सभी उपलब्धियां अन्नमयकोश की योग-साधना पर निर्भर है.
ये सभी उपलब्धियां योग की उच्चस्तरीय कक्षा में पहुचने के लिए काफी उपयोगी सिद्ध होती है. इनकी अनिवार्यता इस लिए है कि योग-साधना के लिए आवश्यक साधनाक्रम में शरीर अपनी असमर्थता प्रकट करके साथ देने से कतराने न लगे. अन्नमयकोश के पुष्ट और शुद्ध होने पर ही व्यक्ति सांसारिक उतार चदाव के बीच अपनी शरीर-यात्रा को संतुलितक्रम से चलाता हुआ, अपने आत्मिक लक्ष्य की ओर अनवरत क्रम से आगे बढ़ सकता है.
अन्नमयकोश की योग-साधना का एक सूक्ष्म पक्ष भी है. दरअसल आत्मिक प्रगति के क्रम में स्थूल शरीर में अनेकों दिव्य संवेदनाओं का संचार होता है. असंकारित अन्नमयकोश इसमें बाधक बनता है अथवा उच्च स्तरीय साधना में अपना उचित सहयोग नहीं डे पता. योग-साधना के कम में अनेक दिव्य साधनाएं उभरती हैं, उन्हें धारण  करना, उनके स्पंदनों को सहन करके अपना संतुलन बनाय रखना बहुत आवश्यक है. ये सारी बातें परिष्क्र्त, जाग्रत, एवं सुविकसित क्षमतासंपन्न अन्नमयकोश से ही संभव है.
इन सब उपलब्धियों एवं क्षमताओं का लाभ पाने के लिए अन्नमयकोश, उसके स्वरूप, तथा सामान्य गुण-धर्मों के बारे में साधक के मन-मस्तिष्क में स्पष्ट रेखा होनी चाहिए. पांचो कोश की संगति में अन्नमयकोश की भूमिका और उसके महत्व को सही ढंग से समझना जरूरी है. 
यह अनुभव सत्य है कि हमारी सत्ता स्थूल, सूक्ष्म अनेको स्तर के तत्वों के संयोग से बनी है. हमारी संरचना में एक बडा भाग है , जिसका सीधा सम्बन्ध स्थूल पदार्थों – पंच भूतों से है. उसके अस्तित्व, पोषण एवं विकास के लिए स्थूल पदार्थों की आवश्यकता पड़ती है. अपने अस्तित्व का वही भाग अन्नमयकोश कहा जाता है. यह अनगिनित छोटी छोटी कोशिकाओं से बना है. स्पष्ट है की ये इकाइयाँ जिस प्रकार की , जिन गुण धर्मों से युक्त होंगी , संयुक्त शरीर-संस्थान में भी वही गुण प्रकट होंगे. अन्नमयकोश को आवश्यकता के अनुरूप बनाने-ढालने के लिए उसकी मूल इकाई को भी ध्यान में रखना होगा.
इससे एल कदम और आगे बढे तो अन्नमयकोश की सूक्ष्म क्षमताओं का स्वरूप भी उभर कर सामने आयेगा. किसी भी क्षेत्र में उच्च साधक का शरीर उसकी मुख्य साधना में सहयोगी बन जाता है. कल्पना के स्पंदनों से शरीर की हर इकाई प्रभावित होती है. तथ्य यह है कि अन्नमयकोश की हर इकाई अन्दर की सूक्ष्म संवेदनाओं को अनुभव करने, स्वीकार करने, तथा उसके अनुरूप प्रभाव पैदा करने में सक्षम हो जाती है. यही प्रक्रिया अन्नमयकोश की योग-साधना है.
इसको दिनचर्या बनाने के लिए यह धारणा अनिवार्य है कि शरीर भोग-साधना के लिए नहीं योग-साधना के लिए है. इसके उचित आहार ,विहार, निद्रा आदि के बारे में श्रीमदभागवत गीता में श्री भगवान् कृष्ण के शब्दों में:- “ युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु . युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दू:खहा..
इस योग-साधना के प्रथम चरण के बाद है द्व्तीय चरण “ प्राणमयकोश “ की ओर अग्रसर होता है.  


प्राणमय कोश की साधना
प्राण शक्ति का संतुलन और संकल्प बल का समावेश
महयोगियों ने अपने अनुभव से सिद्ध किया है कि प्राणमयकोश के प्राणयोग से जीवन में चमत्कारी परिवर्तन संभव है. यह सुनिश्चित सत्य है कि प्राणमयकोश को परिष्क्र्त एवं सबल बनाकर न केवल अपने शरीर, बल्कि दूसरे शरीरों को भी प्रभावित और विकसित किया जा सकता है.
योग विज्ञान का मत है कि प्राणशक्ति ही जीवात्मा की सत सत्ता को चित्त सत्ता से परिपूर्ण बनाती है. इन दोनों का समन्वय हो जाने से ही जीवन के विविध क्रियाकलाप
बन पड़ते है. सत-चित्त-आनंद की संभावनाएं हमारे चारों ओर भरी बिखरी पड़ी है. उपभोक्ता में ‘आत्मा’ की सत्ता मौजूद है, फिर भी सबकुछ असंभव बना रहता है. अशक्तिजन्य दरिद्रता प्राणी को घेरे रहती है. जीवधारी को प्राणी कहने का मतलब यही है कि उसके जीवन की प्रक्रिया प्राणशक्ति के सहारे ही चल रही है. शरीर में ज्यों ही प्राण की कमी हुई कि ‘प्राणांत’ की स्तिथि सामने आ खडी होती है.
मनुष्य में जो चमक, चेतना, स्फूर्ति, तत्परता, तन्मयता दिखाई देती है, वह सब उसके प्राणमयकोश की ही उर्जा है. यह उर्जा जिसमे जितनी कम होगी, वह उतना ही निस्तेज, निर्जीव एवं निर्बल दिखाई देगा. उत्साह, साहस और संतुलन की उपलब्धियां प्राणशक्ति की ही मात्रा पर ही निर्भर रहती है. तपस्वी, मनस्वी, तेजस्वी, ओजस्वी महामानवों की प्रखरता उसमे विद्दमान प्राणमयकोश की उर्जा का परिमाण प्रकट करती है. संकल्पशक्ति , इच्छाशक्ति, द्रढ़ता और सुनिश्चितता में यही प्रकट होती रहती है.
अपनी अनेक गतिविधियों के बावजूद प्राण तत्व एक है. मानवीय काया में प्राणशक्ति को विभिन्न उत्तरदायित्व निबाहने पड़ते है, उन्ही के आधार पर प्राण को अलग अलग नामों से जाना जाता है. इस प्रथकता के मूल में एकता विद्द्य्मान है. प्राण अनेक नहीं है. उसके विभिन्न प्रयोजनों में व्यवहारपद्धति ही अलग अलग है.
इसी के आधार पर शाश्त्रकारों ने इसे कई भागों में विभाजित किया है. कई नाम दिए है और कई तरह से व्याख्या की है. उसका औचित्य होते हुए भी इस भ्रम में पड़ने की जरूरत नहीं है कि प्राणतत्व कितने प्रकार का है और इन प्रकारों में किस तरह की भिन्नता एवं विसंगतियां है. शाश्त्रीय विभाजन के अनुसार प्राण को दस भागों में बाटा गया है. इनमे पांच प्राण और पांच उपप्राण हैं. प्राणमयकोश इन्ही दस के समिश्रण से बनता है. पांच मुख्य प्राणों को ०१. अपान ०२. समान ०३. प्राण ०४. उदान ०५.व्यान कहा है. पांच उपप्राणों को ०१. देवदत्त ०२. कुक्रल ०३.कुर्म ०४. नाग ०५. धनञ्जय नाम दिया गया है.
इनके कार्यों का विवेचन कुछ इस तरह से है :- ०१.अपान – शरीर के मलों को बाहर फेकता है. ०२. समान – पाचक रसों का उत्पादन और उनके स्तर को उपयुक्त बनाय रखता है. ०३. प्राण – श्वास प्रक्रिया के साथ शरीर में बल का संचार करता है. ०४. उदान – जीवनीशक्ति के उध्र्व्गमन की अनेकों प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष क्रियायों को नियंत्रित करता है. ०५. व्यान – सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हो कर संवेदनाओं का संचार करता है.
उपप्राणों के प्रकरण में ०१. देवदत्त -, जो मुखमंडल और उनसे जुड़े अवयवों का प्रहरी है. ०२. कुक्रल – इसका अधिकार क्षेत्र कंठ और उससे होने वाली क्रियायों पर है. ०३. कुर्म – उदार क्षेत्र के अवयवों की साज संभाल करता है. ०४. नाग – जननेन्द्रियों का अधिकारी है कुण्डलनी शक्ति एवं प्रजनन पर इसी का अधिकार है. ०५. धनञ्जय – इसका कार्य क्षेत्र जंघाओं से एडी तक है. गतिशीलता, स्फूर्ति एवं अग्रगमन का उत्साह इसी की समुन्नत स्तिथि का सुपरिणाम है.
प्राणशक्ति का यथास्थान संतुलन बना रहे, तो जीवन सत्ता के सभी अंग प्रत्यंग ठीक तरह से काम करते रहेंगे. शरीर स्वस्थ रहेगा , तो मन भी प्रसन्न रहेगा, अन्तःकरण में सद्भाव और संतोष झलकेगा. भावना क्षेत्रों में विक्रत हुई प्राण सत्ता मनुष्य को नरकीटक, नर पिशाचों के घिनौने गर्त में गिरा देती है. पतन के अनेकों आधार प्राणतत्व की विक्रति से सम्बंधित होते हैं.
प्राणमयकोश का प्राणयोग ही इन सब विक्रतियों से उबारने का एकमात्र उपाय-उपचार है. प्राणयोग के अंतर्गत आसन-प्राणायाम-बन्ध, मुद्राएँ,की अनेकानेक प्रक्रियाएं आती हैं. इन सभी में प्राणायाम को विशेष दर्जा दिया गया है. प्राणायाम में प्रबल संकल्प शक्ति का समावेश करना पड़ता है. प्राणविद्द्या की इस साधना के पश्चात ही मनोमय कोश के परिष्कार का मार्ग प्रशस्त होता है.
इति...     



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