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विज्ञानमयकोश की साधना
आत्मानुभूति योग है आधार विज्ञानमयकोश का
विज्ञान का अर्थ है -विशेष ज्ञान
उपनिषदों में वरुण और भृगु की कथा में विज्ञानमयकोश के इस सत्य का बड़े ही मार्मिक ढंग से बखान किया है. भृगु पूर्ण विद्वान् थे. वेद शाश्त्रों का उन्हें भली-भांति ज्ञान था. फिर भी उन्हें मालूम था की वे आत्मज्ञान के विज्ञान से वंचित हैं. इस विज्ञान को पाने के लिए उन्होने वरुण से प्राथना की. वरुण ने महर्षि भृगु को कोई शाश्त्र नहीं सुनाया , कोई पुस्तक नहीं रटाई और न ही कोई प्रवचन सुनाया. बस उन्होने एक बात कही “ योग-साधना करो”. योग-साधना करते हुए भृगु ने एक-एक कोश का परिष्कार करते हुए विज्ञान को प्राप्त किया.
इस सत्य कथा का सार यही है कि ज्ञान का दायरा सिर्फ जानकारी पाने-बटोरने तक ही सिमटा है , जबकि विज्ञान का एक सिर्फ एक ही अर्थ ---अनुभूति है. इसीलिए विज्ञानमयकोश की साधना को आत्मानुभूति योग भी कहा है. आत्मविद्द्या के सभी जिज्ञासु यह जानते है कि आत्मा अविनाशी है , परमात्मा का सनातन अंश है. परन्तु इस सामान्य जानकारी का एक लघु कण भी उनकी अनुभूति में नहीं आता. शरीर के लाभ के लिए आत्मा के लाभों की उपेक्षा प्रतिक्षण होती रहती है. दीनता, लालसा, त्रष्णा हर घडी घेरे रहती है.
विज्ञान इसी अँधेरे से हमें बचाता है. जिस भावभूमि पर पहुँच कर जीव यह अनुभव करता है कि मई शरीर नहीं वस्तुतः आत्मा ही हूँ , उस मनोभूमि को विज्ञानमयकोश कहते हैं. जब तक जीव अन्नमयकोश में रहता है तब तक अपने को नर-नारी, मोटा-पतला, काला-गोरा, आदि शारीरिक भेदो से पहचाना जाता है. दुसरे चरण प्राणमयकोश की स्तिथि में गुणों के आधार पर पहचाना जाता है जैसे मूर्ख ,विद्वान, वैज्ञानिक, कवि आदि की मान्यताऐ प्राणमयकोश की भूमि में पनपती हैं. तीसरे चरण- मनोमयकोश की भावदशा में मन्य्ताएँ स्वभाव का आधार बनती है. इन सबसे परे चौथे चरण की विज्ञानमयकोश की भावदशा है, इसमें पहुँच कर जीव को यह स्पष्ट अनुभव होने लगता है कि मई ईश्वर का राजकुमार हूँ.
इस सत्य को देने मा कोई भी समर्थ नहीं है. यह देनेवाले की असमर्थता का नहीं सत्य के जीवंत होने का संकेत है. यह कोई वास्तु नहीं जिसे दिया या लिया जा सके. यह तो जीवंत अनुभूति है और अनुभूति स्वयं पानी होती है. ध्यान रहे की वस्तुएं दी या ली जा सकती है, अनुभूतियाँ नहीं. क्या प्रेम की वह अनुभूति जो कोई एक करता है, दुसरे के हाथों में रख सकता है ? क्या यह सौन्दर्य और संगीत किसी एक को अनुभव होता है, किसी दुसरे को हस्तांतरित किया जा सकता है. इन प्रश्नों का उत्तर एक ही है , कभी नहीं. अनुभूतियाँ बाटी नहीं जाती, उन्हें स्वयं अर्जित करना पड़ता है.
आत्मा के जगत का सत्य यही है. यहाँ जो पाया जाता है स्वयं ही पाया जाता है. आत्मा के जगत में कोई ऋण संभव नहीं है. यहाँ कोई पर-निर्भरता संभव नहीं है. किसी दुसरे के पैरों से वहां नहीं चला जा सकता. स्वयं के अतिरिक्त वहां कोई भी शरण नहीं है. विज्ञानमयकोश की आत्मानुभूति योग का यही रहस्य है. इस आत्मानुभूति की साधना को निम्न बिन्दुओं से समझा जा सकता है.
१.      किसी शांत, एकांत, कोलाहल रहित स्थान का साधना के लिए चुनाव करके हाथ-मुंह धो कर सुविधापूर्वक साधना में बैठना चाहिए. अधिक देर बैठने में दिक्कत हो तो इसे लेट कर भी किया जा सकता है.
२.      पांच बार गहरे लम्बे श्वास लें , भावना यह रहे की पांचो कोश शुद्ध हो रहे हैं. इसके बाद शरीर के अंगों-प्रत्यंगों को शिथिल करें. भावना यह रहे कि सरे शरीर में एक शांत नीला आकाश व्याप्त हो  रहा है. ऐसी शांत-शिथिल अवस्था कुछ दिनों की साधना के बाद प्राप्त हो जाती है. इसके बाद ह्रदय स्थान में अंगूठे के बराबर शुभ्र-श्वेत ज्योतिस्वरूप प्राणशक्ति का ध्यान करना चाहिए. भावना यह रहे – ‘ मई शुद्ध, बुद्ध, चैतन्य , अविनाशी आत्मा हूँ” . इस अवस्था के प्रगाढ़ अनुभव के बाद आगे की सीढ़ी पर पाँव रखना चाहिए.
३.      उपर्युक्त पंक्तियों में दिए गए विवरण के अनुसार पहले स्वयं को शिथिल अवस्था में लाये , फिर उसी अवस्था में अपने अन्दर नीले आकाश का ध्यान प्रारंभ करे.ध्यान की इस प्रक्रिया में उस आकाश में बहुत ऊपर सूर्य के समान ज्योतिस्वरूप आत्मा को अवस्थित देखते हुए यह सुनिश्चित संकल्प करे –“ मै ही वह प्रकाशवान आत्मा हूँ. भाव की इस प्रगाढ़ता में अनुभव करे कि अपना शरीर नीचे भूतल पर निस्पंद अवस्था पडा हुआ है. उसका प्रत्येक अंग-प्रत्यंग मेरी आत्मा के उपकरण से अधिक और कुछ नहीं. शरीर और है ही क्या सिवाय आत्मा के वस्त्र के. शरीररूपी यह वस्त्र अथवा यंत्र मेरी आत्मा की शक्तियों की अभिव्यक्ति के लिए मिला है. ध्यान की इसी प्रगाढ़ता में इस निस्पंद शरीर में खोपड़ी का ढक्कन उठा कर मन आयर बुद्धि को दो सेवक शक्तियों के रूप में अनुभव करे. अनुभूति के इस क्षणों में देखे की ये दोनों विनम्र भाव से आत्मा की आज्ञा माने के लिए तत्पर हैं. इस अनुभूति की गहनता में यह संकल्प करे कि शरीर, मन और बुद्धि मेरी अत्त्मा के सेवक है. मै उनका उपयोग केवल-आत्मकल्याण के लिए ही करूँगा. इस दूसरी अवस्था में ध्यान जब सह्जता से होने लगे और इसमें उभरी भावनायें जब समूचे अस्तित्व में राम जायं, तो आत्मानुभूति की इस तीसरी अवस्था में कदम बढ़ाना चाहिए.
४.      इसमें स्वयं को आकश में अवस्थित सूर्य के रूप में अनुभव करे. अनुभूति के इन पलों में यह बोध प्रगाढ़ हो कि “ मै समस्त भूमंडल पर अपनी किरण फेक रहा हूँ. समूचा संसार मेरी कर्मभूमि और लीलाभुमि है. भूतल की समस्त वस्तुओं और शक्तियों को “मै” अपने इच्छित प्रयोजनों के लिए काम में लाता हूँ, पर ये मेरे ऊपर अपना कोई प्रभाव नहीं डाल सकती. पंच महाभूतों में जो भी हलचल, क्रिया-प्रतिक्रिया हो रही है वो मेरे मनोरंजन-विनोद मात्र है. सांसारिक हानि=लाभ मुझे प्रेरित प्रभावित नहीं कर सकते. मै शुद्ध, चैतन्य, सत्यस्वरूप, पवित्र, निर्लिप्त, अविनाशी आत्मा हूँ. मै परमात्मा का अभिन्न अंश हूँ.
इस भावभूमि में जब आपकी स्तिथि प्रगाढ़ हो जाये, और हर घडी जब यही भावना रोम-रोम से झरने लगे तो समझना चाहिए कि विज्ञानमयकोश का आत्मानुभूति योग सध गया है. इसमें सिद्धि मिलने के पश्चात ही आनंदमयकोश की साधना-सिद्धि के पल आतें हैं.  


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