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षटचक्र भेदन साधना का दूसरा चक्र “स्वाधिष्ठान चक्र”
विषयासक्ति से मुक्ति – स्वाधिष्ठान की सिद्धि
संस्क्रत भाषा में ‘स्व’ का अर्थ है ,’अपना’ और ‘अधिष्ठान’ का तात्पर्य है , ‘रहने का स्थान’. इस तरह स्वाधिष्ठान का शाब्दिक अर्थ है ‘अपने रहने का स्थान’. यह चक्र मूलाधार के ठीक ऊपर स्थित है. इसका सम्बन्ध स्थूल शरीर में प्रजनन तथा मूल संस्थान से है. शरीर विज्ञान की द्रष्टि से यह प्रोस्टेट ग्रंथि के स्नायुओं से सम्बंधित है. इसकी स्थिति हड्डी के नीचे कक्सिक्स के स्तर पर अनुभव की गयी है. दरअसल यह हड्डियों के एक छोटे बल्ब की तरह है, जो गुदाद्वार के ठीक ऊपर है. पुरुषों और स्त्रियों दोनों में ही इसकी स्थिति मूलाधार के अत्यन्त नजदीक है.
योग-साधना के द्रष्टि से स्वाधिष्ठान चक्र को व्यक्ति के अस्तित्व का आधार माना गया है. मस्तिष्क में इसका प्रतिरूप अचेतन मन है , जो संस्कारों का भरा-पूरा भण्डार है. आध्यात्म वेत्ताओं का मानना है कि प्रत्येक कर्म , पिछला जीवन, पिछले अनुभव अचेतन में संग्रहित रहते हैं. इस सभी का प्रतीक स्वाधिष्ठान चक्र ही है. तंत्र शाश्त्रों में पशु तथा पशु नियंत्रण जैसी एक धारणा है , सभी पाशविक प्रवत्तियों का नियंत्रणकर्ता . यह भगवान  शिव का एक नाम और स्वाधिष्ठान चक्र का एक गुण है. इन अर्थों में स्वाधिष्ठान चक्र की साधना का अर्थ है –पाशविक प्रवत्तियों का नियंत्रण एवं उन्मूलन तथा देवव्र्त्तियों का विकास.
योग्शाश्त्रों में स्वाधिष्ठान चक्र के स्वरूप एवं उसकी शक्तियों का रहस्य प्रतीकात्मक ढंग से समझाया गया है. इस विवरण के अनुसार स्वाधिष्ठान का रंग काला है क्योकि यह अचेतन का प्रतीक है. हालाँकि इसे छ: पंखुड़ियों के सिन्दूरी कमल के रूप में चित्रित किया जाता है. हर पंखुड़ी पर बं , भं , मं , यं ,रं , लं चमकीले रंगों में अंकित है.
 इस चक्र का तत्व ‘जल’ है और इसका प्रतीक है , कमल के अन्दर एक सफ़ेद अर्धचन्द्र. यह अर्धचंद्रमा दो वृत्तों से मिलकर बना है , जिससे दो यंत्रों की संरचना होती है. बड़े वृत्त से बाहर की ओर पंखुडियां निकलती हुई दिखाई देती हैं, जो भौतिक चेतना की प्रतीक हैं. अर्धचन्द्र के अन्दर वाले छोटे वृत्त में उसी प्रकार की अन्य पंखुडियां भी हैं , पर वे केन्द्र की तरफ मुडी हैं. यह आकारविहीन कर्मों के भण्डार की प्रतीक हैं. अर्धचन्द्र के अन्दर स्थित इस दोनों यंत्रों को श्वेत रंग का एक मगर अलग-अलग करता है. यह मगर अचेतन जीवन की सम्पूर्ण मनोलीला का माध्यम है. इसे सुप्त कर्मों के प्रतीक के रूप में भी अनुभव किया जा सकता है. वं बीज मंत्र इस मगर के ऊपर अंकित है.
मन्त्र के बिंदु के अन्दर भगवान् विष्णु एवं देवी राकिनी का निवास है. यहाँ भगवान् विष्णु अपने चतुर्भुज रूप में पीताम्बर पहने अत्यंत मनमोहक रूप में सुशोभित हैं. देवी रकिनी का रंग नीले कमल की तरह है एवं वे दिव्य वस्त्र एवं आभूषणों से सजी हैं. ऊपर उठे उनके हाथों में अनेक शस्त्र हैं. अम्रत पान करने से उनका मन अतीव आनंदित है. देवी रकिनी वनस्पतियों की अधिष्ठात्र शक्ति हैं. स्वाधिष्ठान चक्र का वनस्पति जगत से निकटतम सम्बन्ध है, इसलिए इसकी साधना में शाकाहार को अत्यंत सहायक माना गया है.
स्वाधिष्ठान चक्र का सम्बन्ध भुव: लोक से है. यह आध्यात्मिक जाग्रति के मध्य स्तर है.  स्वाद की तन्मात्रा एवं संवेदना का इससे घनिष्ट सम्बन्ध है. इसकी ज्ञानेन्द्रिय जीभ है और कर्मेन्द्रियां ‘किडनी’ मूत्र संसथान एवं यौन अवयव हैं. योग साधकों का अनुभव है कि स्वाधिष्ठान चक्र की साधना करके साधक अपनी आंतरिक दुष्प्रवत्तियों, काम, क्रोध, लालच, लोभ, आदि से तुरंत मुक्त हो जाता है.
स्वाधिष्ठान चक्र के जागरण की साधना अत्यंत कठिन एवं दुष्कर है, किन्तु साधक यदि विवेकवान व वैराग्य संपन्न है , तो यह उतनी ही सुगम और सरल भी है. साधना के इसी तल पर सभी अवशेष कर्म एवं नकारात्मक संस्कारों का निष्कासन प्रारंभ हो जाता है. इस समय क्रोध , यौन विक्र्तियाँ तथा दूसरी तरह की कामनाएं , वासनाएं उफनने-उमगने लगती हैं. सभी प्रकार की तामसिक वृत्तियों , तन्द्रा, अकर्मण्यता तथा निराशा आदि के बवंडर इसी दौरान पनपते हैं. इस समय हमेशा सोते रहने की इच्छा जोर मरती है. साधना की यह स्थिति शोधनकाल कहलाती है. यदि महान साधकों , योगियों की जीवनी पढ़ी जय तो पता चलता है कि साधना के इस स्तर को पार करते समय उन्हें बहुत अधि अशांति व मोह-माया का सामना करना पड़ा था.
भगवान् बुद्ध जब आत्मज्ञान से लिए बोधिवृक्ष के नीचे बैठे थे , तो उनके पास ‘मार’ आया था. इस मार ने उन्हें तरह तरह से सताया और प्रलोभन भी दिए. बौद्धग्रंथों की भांति बाइबिल में भी ऐसी कथाएं हैं , जिसमे शैतान का और उनकी अगणित गतिविधियों का वर्णन किया गया है. ये मार और शैतान दो नहीं एक ही हैं. इनकी उपस्थिति कहीं बाहर नहीं , बल्कि अपने ही अन्दर है. इनका अस्तितित्व व्यक्तित्व के अत्यंत गहन स्तर मौजूद है. इनमे माया को उत्पन्न करने की क्षमता है.
ध्यान रहे प्रचंड साहसी एवं महासंकल्पवान साधक ही स्वाधिष्ठान चक्र का जागरण एवं परिशोधन करने में समर्थ हो पाता है. प्रत्येक योग साधक को इस विशिष्ट अनुभूति के स्तर को , जो जीवन के रहस्यों के अंतिम विस्फोट की भांति होता है , पार करना ही पड़ता है. जो स्वाधिष्ठान चक्र की साधना के अनुभवों से परिचित हैं उन्हें मालूम होगा की मानव के जन्म-मरण की समस्या का प्रगाढ़ सम्बन्ध यहीं से है. इस चक्र की साधना करते समय हालाँकि कामनाओं और वासनाओं के संकट अनके हैं , फिर भी गुरुकृपा, संकल्पशक्ति, आध्यात्मिक मार्ग में लगनशीलता , जीवन लक्ष्य के प्रति समर्पण व  आत्मशोधन की प्रक्रिया, एवं इसकी अनुभूतियों को ठीक से समझ कर साधक की साधना में उत्तीर्ण हो सकता है.
स्वाधिष्ठान चक्र की साधना यथार्थ में विवेक और वैराग्य की साधना है और यह वैराग्य बौद्धिक नहीं वास्तविक एवं आंतरिक होना चाहिए. योग-साधक के मन में यह भावना होनी चाहिए कि जीवन के सुखों का कोई अंत नहीं है. इच्छाओं को क्या कोई कभी पूरा कर सका है ? भला कामनाओं, वासनाओं की अग्नि को विषय भोगों के घी से आज तक कौन बुझा सका है ? यदि यह सच्चाई है , तो फिर आज और अभी से क्यों न विषयासक्ति से नाता तुड़ा लिया जाए .
जो योग साधक अपने सद्गुरु की कृपा से इस सत्य से परिचित हैं कि कामनाएं एक क्या एक हज़ार जन्मों में भी पूरी नहीं की जा सकती हैं, तो स्वाधिष्ठान चक्र की साधना बिना किसी विघ्न-बाधा के पूरी हो जाती है. यदि साधक में इस ज्ञान का अभाव है , तो उसके लिए स्वाधिष्ठान चक्र एक अभेद्य लोहे की दीवार की तरह से होता है , जिसे किसी भी जन्म में कोई भी पार नहीं कर सकता. ‘सद्गुरु की कृपा ही केवलं’ यही स्वाधिष्ठान चक्र की साधना का मूल मन्त्र है. जिसकी सहायता से साधक को इससे आगे मणिपुर चक्र की साधना का अवसर है.       



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