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आनंदमयकोश की साधना
आनंद से समाधि, स्वर्ग और मोक्ष तक
ईश्वर आनंदस्वरूप है. उसके अविनाशी अंश जीव के कण-कण में भी आनंद व्याप्त है. इश्वर की चिर संगनी पृकति में सौन्दर्य एवं सुविधा प्रदान करने की आनंदमयी विशिष्टता भारी पडी है. यहाँ सर्वत्र आनंद ही आनंद है. आनंद का यह कोश हममे से हर एक को असीम मात्रा में उपलब्ध है. निश्चित रूप से जीवन आनंदमय है और हम सब आनंदलोक में रह रहें हैं. इस अपरिमित सौभाग्य के साथ दुर्भाग्य भी लगबघ वैसा ही है , जैसा बाबा कबीर अपनी एक उलटबांसी में कह गए है:- “ पानी बिच मीन प्यासी, मोहि लखि-लखि आवे हांसी.”
यह उलटबांसी सुनने में उलटी है , पर समझने में बड़ी सीधी और सच है. आनंदलोक में रहते हुए भी हममे से प्रायः सभी आनंद से वंचित हैं. यह सच्चाई कुछ वैसी है है , जैसे कोई व्यक्ति अपने घर का ताला बंद कर के कही चला जाय . लौटने पर चाबी गुम हो जाने के कारण बहार बैठा ठण्ड में सिकुड़े और दुःख भोगे. ठीक ऐसी ही दशा अपनी भी है. अमन्द्मय्कोश अपने में ही है पर इसकी चाबी खो जाने के कारण रहना पड़ रहा ही निरानंद स्तिथि में. कैसी विचित्र स्तिथि है ! कैसी विडंबना है ! यह अपने ही साथ अपना कितना विलक्षण उपहास है.
आनंदमयकोश की साधना इस दू:खद दुर्भाग्य को समाप्त करने के लिए है. इस साधना के बल पर उस टेल को खोला जा सकता है , जिसमे उल्लास का अजस्त्र भण्डार भरा पडा है. यह कार्य ईश्वर और जीव के मिलन की विधि-व्यवस्था बना कर , रीति-नीति अपनाकर ही संभव हो पाता है. पंचकोशो की साधना के उच्च स्तर पर पहुँच कर इसी चाबी को ढूढना पड़ता है और टेल को खोलने की जुगत बैठानी पड़ती है. जो इसे कर सका , सूए फिर यह नहीं कहना पड़ेगा कि हमारा जीवन निरानन्द और नीरस है. आनंदमयकोश में समाया खजाना हाथ में लगते ही दू:ख और दुर्भाग्य हजारों हज़ार कोस दूर भाग खड़े होते हैं.
आनंदमयकोश की साधना का स्वरूप ईश्वर और जीव की मिलन व्यवस्था है आमतौर पर हम ईश्वर के नाम भर से परिचित है. जब-तब उसका नाम ले भी लेते हैं या जप-अनुष्ठान वगैरह कर लिए मगर इन सबके पीछे मकसद यह नही होता कि स्वयं को पूर्णतया भगवान् को डे डाले , प्रभु में अपने को विसर्जित कर डे. इस विसर्जन का, समर्पण का, समन्वय का कितना सुखद परिणाम हो सकता है , इसकी कल्पना भी नहीं हो सकती. हाँ यह जरूर होता है कि पूजा-पत्री के बहाने हम भगवान् से क्या लूट-खसोट ले. किसी तरह भगवान् को बहला फुसला कर उनसे साड़ी मनोकामना पूरी करा ले. ऐसे लोग आनंदमयकोश का दुर्लभ खजाना कभी नहीं पा सकते. आनंदमयकोश की साधना तो केवल उनके लिए है , जो अपना समग्र समर्पण भगवान् के चरणों में करने के लिए आतुर-आकुल रहते हैं. आनंदमयकोश की साधना का यही स्वरूप है. यह जहाँ भी वास्तविक रूप में संपन्न हो रहा है , वहां निश्चित रूप से आनंदमयकोश का अमृत कलश छलक रहा होगा. स्वर्गीय परिस्तिथियाँ बनी होंगी. उल्लास बिखरा पड़ा होगा , संतोष की सुखद वायु बह रही होगी.
आनंद का स्वरूप , आधार और स्थान मालूम पड़ने पर यह बात निश्चित हो जाती है की क्या करने से क्या मिलेगा. यह निश्चित हो जाना , भगवान् के प्रति सच्चे समर्पण का भाव जाग्रत हो जाना ही तत्वज्ञान है. इस तत्वज्ञान से आत्मिक समस्याओं का समाधान होता है. आत्मा की उलझने समर्पण की इसी गहरी भावदशा में सुलझती हैं. आनंदप्राप्ति के लिए सर्वप्रथम इसी आंतरिक समाधान और दिशा निर्धारण का प्रयत्न करना पड़ता है. समाधि इसी स्तिथि का नाम है. आनंद की उपलब्धि के लिए सबसे पहले इसी हेतु प्रयत्न किया जाता है.
आमतौर पर समाधि का मतलब एक तरह की बेहोशी से माना जाता है- हठयोग के अंतर्गत ऐसे प्रयोग भी हैं जिसमे श्वास क्रिया रूकती है और ह्रदय की धड़कन घटती है. वैसी स्तिथि में चेतना निश्चेष्ट होकर बहुत समय तक पड़ी रहती है. पर आनंदमयकोश के साधकों के लिए समाधि वह है , जिसमे चिंतन की दिशा , आंकाक्षा और विचारणा सभी भगवान् के चरणों में अर्पित, समर्पित होने के लिए वह चले. यह जाग्रत समाधि है जो एक केन्द्र पर सोचते रहने की मानसिक विधि नहीं है , वरन लक्ष्य का सुनिश्चित निर्धारण आयर अभिगमन है.
समाधि की आंतरिक स्थिरता प्राप्त होने पर योगी का द्रष्टिकोण परिशक्रत होता है ऐसी दशा में विधेयात्मक एवं गुणग्राही चिंतन अपने आप पनपता है. स्रष्टि में यु कुरूपता भी विद्यमान है और मनुष्य में तामसिकता के अंश भी मौजूद हैं , पर समाधि में भाव-प्रगाढ़ता होते ही मन-मस्तिष्क में अपने आप ही एक सात्विक उत्साह छा जाता है. और एक नूतन सौन्दर्य द्रष्टि विकसित हो जाती है. जिससे अपने आप ही विश्वासी सौन्दर्य के दर्शन होने लगते हैं. पदार्थों और प्राणियों में शिवत्व की झांकी मिलती है. अपने आस-पास सर्वत्र स्वर्ग की उपस्थिथि ही प्रतिभासित होती है.
समाधि और स्वर्ग के बाद आनंदमयकोश की तीसरी उपलब्धि है मोक्ष. मोक्ष का वास्तिविक अर्थ है आत्मसत्ता को भौतिक न मान कर विशुद्ध चेतन तत्व के रूप में अनुभव करने लगना . मोक्ष की इस अवस्था में ही वास्तविक आनंद है. सच यही है की आत्मा आनंद चाहती है , पूर्ण आनंद , क्योकि तभी चाहों में विराम आ सकता है. जहाँ चाह है वही दुःख भी है, क्योकि वहां अभाव है. आत्मा सभी अभावों का अभाव चाहिती है . अभावों का पूर्ण अभाव ही आनंद है और वही परम स्वतंत्रता भी है , मुक्ति भी. क्योकि जहा कोई भी अभाव हो वही बंधन, सीमा, परतंत्रता है अभाव जहाँ नहीं है वही मुक्ति का प्रवेश है.



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