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अतिवादी चिंतन और बढ़ता पागलपन

शारीरिक रोगों की तरह अब मानसिक रुग्णता भी आम बात है. शरीर पर कुपोषण, प्रकृति विरोधी दिनचर्या को आधारभूत करण मान लिया गया है और चिकित्सा उपचार के अतिरिक्त जीवनचर्या में हेर-फेर करने की आवश्यकता को भी लोग समझने लगे हैं किन्तु बढ़ते हुए पागलपन का कारण मोटे रूप में समझ में नहीं आता है क्योकि न तो लोगों ने इसे गंभीरतापूर्वक इस विषय में विचार किया है और न इस सन्दर्भ में समझने, समझाने को कोई ठोस प्रयास हुआ है. शरीरगत रोगों के निवारण के सम्बन्ध में जितनी कुछ उलटी-सीधी जानकारी है उतनी मनोरोगों के सम्बन्ध में नहीं फिर भी इस विषय में कोई उपयोगी साहित्य भी तो नहीं लिखा गया और न पागलखानों के अतिरिक्त निजी उपचार ग्रहों का स्थापन-प्रचलन हुआ है.

पर्यवेक्षण से पता चलता है कि प्रायः एक तिहाई लोग न्यूनाधिक् रूप से विक्षिप्त या अर्धविक्षिप्त बन कर रह रहे हैं. आरंभिक स्तिथि में उनके लक्षणों को स्वभावगत दोष मानकर घटना विशेष के सम्बन्ध में समझाने-बुझाने, डाटने-डपटने या बोल-चाल बंद कर देने जैसी प्रतिक्रिया भर व्यक्त की जाती है. यह नहीं देखा जाता कि इस प्रकार के अटपटेपन का मूल कारण क्या है. अच्छे खासे व्यक्ति के चिंतन और व्यवहार में ऐसा बेतुकापन क्यों बढ़ रहा है. उसकी जिस-तिस प्रकार से पुनराव्रत्ति क्यों हो रही है ?

मानसिक विक्षप्तता अब पेट के अपच या नाक के जुकाम की तरह बहुजन प्रचलित होती जा रही है. उसका कारण न समझ पाकर उसे उद्दंडता, इर्ष्या आदि नाम डे देते हैं और उसे दोष भर मान लेतें हैं जबकि उसकी गहराई में जा कर यह देखना चाहिए कि इस प्रकार का असंतुलन क्यों उत्पन्न हो रहा है ? निदान और उपचार का सही स्वरूप मालूम होने पर ही व्यथा से छुटकारा पाया जा सकता है.

विक्षिप्तता का हल्का स्तर यह है जिसमे व्यक्ति का आचरण असाधारण रूप से अटपटा हो जाता है. वस्तुस्तिथि का रूप भी समझ में नहीं आता और कुछ का कुछ निष्कर्ष निकालता है. दुर्भावनाओं की गाँठ बना लेता है. दूसरों को दोषी मानता है और उत्पन्न होए रहने वाले विग्रहों में अपने को निर्दोष. दोष दूसरों में भी हो सकते हैं, गलती दुसरे भी कर सकते हैं. पर उसका हल विचार-विनिमय से निकलता है. पर जहाँ वह प्रक्रिया जड़ पकढ़ने लगे तो समझना चाहिए कि विग्रही विक्षिप्तता का आरम्भ हो गया है.

एक दुसरे प्रकार की विक्षिप्तता है, जिसे सनक कहते हैं. रोगी के मस्तिष्क पर कोई एक बात ही छायी रहती है वह भी रचनात्मक नहीं, निषेधात्मक ही हटी है. सृजन नहीं ध्वंस, सहयोग नहीं विग्रह ही इच्छा पूर्ति का उपाय सूझता है. स्वजन पराये लागतें हैं और उनकी सेवा सहायता भी अनिष्टकारी प्रयास जैसी लगती है. कई बार इच्छाएं ऐसी अवास्तविक एवं बढ़ी-चढ़ी होतीं हैं जिसकी पूर्ती का कोई तुक नहीं. इसी प्रकार अन्य विसंगतियां भी मस्तिष्क पर सवार रहती हैं. एक में शिथिलता नहीं आ पाती कि दूसरी नै सनक उठ खड़ी होती. इस प्रकार असंतोष, आक्षेप, विग्रह का वातावरण बना ही रहता है. संपर्क में आने वाले लोग हैरान हो जाते हैं साथ ही रोगी अपने को उपेक्षित व सताया गया अनुभव करता है. इस प्रकार सनक भी शारीरिक बीमारी की तरह ही एक स्थायी विपत्ति बन जाती है और दोषारोपण, खीज, घुटन का सिलसिला चल पड़ता है.
सनक जब उग्र रूप धारण करती है तो उससे आक्रांत व्यक्ति अपने दैनिक काम-काज ठीक तरह से निपटने की स्तिथि में नहीं रहता और ऐसे आचरण करता है जिस पर नियंत्रण न बन पड़े. ऐसे ही लोग पागलखाने में पहुँचते हैं और उन्ही के आधार पर पागलों की गणना होती है. ऐसे लोगों की संख्या अब आश्चर्य रूप से बढ़ रही है और उनके लिए संक्रामक रोगों के रोगियों तरह पृथक व्यवस्था हर नगर में महसूस की जा रही है.

अनपढ़ क्षेत्रों में उसे भूत-पलीत का प्रकोप, किसी के द्वारा किया हुआ जादू-टोटका मान कर जंत्र--तंत्र करने वालों के फेर में पडते हैं और व्यर्थ ही अपना पैसा और समय गँवाते हैं, बाबाओं की मण्डली में जा मिलते हैं, भीख मांगते या आत्महत्या जैसा कुछ कर बैठते हैं. बीमारियाँ भी शरीर को घेर लेती हैं.

होता यह है की जिस प्रकार व्यावहारिक जीवन में आहार-विहार का संतुलन ठीक न बैठ पाने के कारण आये दिन शारीरिक रोगों के आक्रमण होते रहते हैं, उसी प्रकार चिंतन क्षेत्र में अनुपयुक्त आकांक्षाओं की होता  भरमार कर लेने, मर्यादा व शालीनता का ध्यान न रखने पर व्यक्ति अनुपयुक्त कल्पनाएँ करने लगता है. ताल-मेल बिठाने की अपेक्षा अपने ही अहंकार के प्रतिपादन को सब-कुछ समझ बैठता है. उस प्रकार का बानग नहीं बन पाता. यही से घुटन, खीज, दोषारोपण और दुर्भाग्य की अनुभूति होने लगती है. यह एक प्रकार का मानसिक ज्वर है जिसके चढने पर उसी प्रकार की अटपटी परिस्थिथि बन जाती है जैसी कि ज्वर आने पर शरीर में बेचैनी, हड्कन होती है.

सुख-सुविधाओं की, दूसरों से असाधारण लाढ-दुलार की आशा रखने और व्यवहार में उनके कार्यान्वित न होने पर व्यक्ति कुढने लगता है. ऐसा भी होता है कि चिंतन प्रवाह में हर किसी में दोष निकलने की आदत पड जाने से संपर्क क्षेत्र के सभी लोग बुरे लगने लगते हैं. अनुभूति को व्यक्त करके उसका निराकरण करने का साहस नहीं होता. फलतः उसकी निषेधात्मक मान्यता ही उसे वास्तविक प्रतीत होने लगती है और सब ओर प्रतिकूलता-अवांछनीयता द्रष्टिगोचर होने लगती है. इससे क्रोध उत्पन्न होता है, उसका न समाधान होता है न खुलासा. घुटन भीतर ही भीतर जलाती है और त्रास देती रहती है. रक्त में या पेट में भारी विषाक्तता का निराकरण न होने पर जिस तरह शारीरिक बीमारियाँ फूट पड़ती हैं उसी प्रकार मानसिक घुटन भी एक सनक या विक्षिप्तता का रूप धारण कर लेती है. दब्बो पृक्रति या उद्दंड स्वभाव के महत्वाकांक्षी बहुदा छोटे-बडे स्तर की सनक या विक्षप्त्ताओं के शिकार होते हैं.

आत्याचार, उत्पीडन, अपमान भी मनुष्य को विक्षुब्ध बना देते हैं. उपेक्षा लड़ाई से भी अधिक अखरती है. ऊँची उड़ने भरने वाले जब परिस्तिथियों में वैसी सम्भावना नहीं देखते तो भी आघात अनुभव करते हैं और तिलमिलाने लगते हैं. बहुधा दाम्पत्य जीवन के बारे में युवकों और युवतियों की आकांक्षाएं, कल्पनाएँ देवलोक जैसी होती हैं. सिनेमा इस तरह की प्रणय लीलाओं का अव्यवहारिक ज्ञान जमा देता है. उसके चिरतार्थ न होने पर भी वे घुटते हैं और उस आक्रोश को अपने ऊपर उतारते हैं. सिर पीटने की तरह संतुलन को गड़बड़ा लेना भी वस्तुस्तिथि से अपरिचित लोगों का ही काम है. दोष ढूँढने पर वे सर्वत्र प्रचुर परिणाम में मिल सकते हैं. अपने को उत्पीडित या दुर्भाग्यग्रस्त समझने वाले अपने मत को पुष्टि के लिए कोई न कोई आधार ढूंढ लेते हैं.


पागलपन अन्य कारणों से भी हो सकता है. पर इन दिनों जिस तेजी से संकी और विक्षिप्तों की संख्या बढ़ रही है उसमे उनका अनुपयुक्त चिंतन ही प्रधान कारण होता है. हित चिन्तकों का कर्तव्य है कि अपनों को जीवन की वास्तविकताओं से परिचित कराते रहें और वह स्तिथि स्वजनों के सिर पर न लड़ने दें जिसके लिए सभी को खिन्न रहना पड़े.     

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