अवचेतन को प्रभावित-परिष्कृत
करने का विज्ञान का प्रयास
उत्थान और पतन का सम्बन्ध आमतौर से सम्बंधित व्यक्तियों
और प्रस्तुत परिस्तिथियों के साथ जोड़ा जाता है, पर वस्तुतः ऐसी बात नहीं है.
मनुष्य की अपनी मनोवृत्ति, आस्था, आदत, रूचि ही वह धुरी है जिसके इर्द-गिर्द
परिस्तिथियाँ घूमती हैं और भावी संभावनायें जुडी रहती हैं. अब परिस्तिथियों को
सुधारने के लिए यह आवश्यक समझा जाने लगा है कि व्यक्तित्व को सुधरने व सँभालने
वाली मन:स्तिथि उत्पन्न की जाये.
मनाह्शास्त्री इस दिशा में अपने ढंग से प्रयत्नशील हैं.
वे स्वध्याय सत्संग,चिंतन,मनन के क्रिया कलाप को दार्शनिकों और लोकशिक्षकों के लिए
छोड़ देते हैं और यह प्रयत्न करते हैं कि विद्दुतीय अथवा रासायनिक प्रक्रिया के
सहारे मस्तिष्क को प्रभावित करके उसे बलात वशवर्ती बनाया जाये और जिस दिशा में भी
किसी को चलाया जाना हो उसी के अनुरूप उसकी मस्तिष्कीय स्तिथि में हेर-फेर कर दिया
जाये. ऐसा करने से किसी को समझाने-बुझाने या बताते-मनाने की आवश्यकता न रहेगी वरन एक
सामान्य यंत्र की तरह मस्तिष्क का उपयोग करके अमुक रीति से सोचने को बाध्य किया
जायेगा. फिर विचारात्मक पृष्टभूमि बनाने के लिए लेखनी, वाणी जैसे साधनों की
उपयोगिता नगण्य जितनी रह जाएगी.
कनाडा के मनःतत्व
विशेषज्ञ डा० डब्लू. गी. पेनफील्ड ऐसे विद्दुतग्र इलेक्त्रोड़ खोजने में समर्थ हो
गए हैं जिसका अमुक स्थान [आर अमुक कोशिकाओं के साथ सम्बन्ध जोड़ देने पर मनुष्य
भूतकाल की घटनाओं को आँख के आगे मूर्तिमान होने की पुनरावृत्ति देख सकता है. इसी
प्रकार भूतकाल के किन्ही संवाद-परिसंवादों की अभी-अभी के घटनाक्रम की तरह अनुभव कर
सकता है. मेस्मारेज्म, हिप्नोटिज्म के आधार पर अतीन्द्रीय या अतिमानस के स्तर पर
अनुभव किये जाते रहे हैं और प्रयोक्ता अपनी मनमर्जी के चिंतन एवं दृश्य प्रयोगी के
मस्तिष्क को अनुबह्व कराता रहा है. वह प्रयोग अब पुराने पड गए. क्योकि उसके लिए
प्रयोक्ता को स्वयं कई तरह के अभ्यास करने पड़ते थे. प्रयोगी को संवेदनशीलों में से
चुनना पड़ता है फिर भी तकनीकी गलतियों से कई बार पूरी या आधी सफलता ही मिलती थी. अब
यह कार्य इलेक्ट्रोड की सहायता से यांत्रिक उपकरण सुनिश्चित रूप से कर दिया गया,
एक सीमित मात्रा में विद्दुत तरंगे मस्तिष्क में प्रवेश कराके मनुष्य को थकान एवं
अनिद्रा की पीड़ा से मुक्त कराया जा सकेगा. इतना ही नहीं उसे इतना मूर्छित भी किया
जा सकेगा कि आपरेशन के कार्य भी आसानी से हो सके.
जीवशास्त्री जेम्स ओल्डस ने मस्तिष्क पर आंशिक नियंत्रण
करके चूहों को बिल्ली से डरने की भावना से मुक्त कर दिया. वे बिल्लियों को अपनी
सजातीय मानने लगे और बिना दार के उनकी पीठ पर चढ़ने लगे. फ्रांसीसी वज्ञानिक प्रो०
देलगादो का कथन है आदतों और अभ्यासों की उसी तरह काट-छांट की जा सकती है जैसे
फोड़े-फुंसियों की. किसी की नसों में रक्त चढाने की तरह उसके मस्तिष्क में अच्छी
आदतों का भी बाहर से प्रवेश करा सकना भी अगले दिनों संभव हो जायेगा.
मस्तिष्कीय चेतना को उल्टा या बदला जा सकता है इस सम्बन्ध
में पिछले काफी दिनों से खोजबीन चल रही है. मस्तिष्क में किस स्थान पर किस प्रकार
की क्षमता का निवास है यह बहुत कुछ जान लिया गया है और यह प्रयोग सफलतापूर्वक
संपन्न किया गया है कि मस्तिष्क की किसी गर्त में पड़ी हुई किन्ही विकृतियों को
बिजली का झटका देकर जगाया जाये और मनुष्य यह अनुभव करे मनो वह घटना अतीत की नहीं
अभी-अभी की है.
स्नायु विज्ञानी कार्ल लैसलेने ने यह पता लगाया है कि
मस्तिष्कीय कणों के किस पर्त पर कितना विद्दुत प्रवाह जरी करने से किस स्तर की
कितनी पुरानी स्मृति जागृत हो सकती है. मैकगिल विश्वविद्यालय मॉन्ट्रयाल (कनाडा)
के डॉ० विल्डर पेन फील्ड ने दृश्य, ध्वनि और विचार का सम्बन्ध स्थापित करते हुए यह
सम्भावना व्यक्त की कि लोगों के मस्तिष्क को इच्छानुसार चिंतन करने के लिए
प्रशिक्षित किया जा सकता है. कलिफ़ोर्निया इंस्टीटयूट ऑफ़ टेकनालोजी के डॉ०
रोगरस्पेरी ने चिर संचित आदतों को भुला देने और अनायास ही नये अभ्यास के आदी बना
देने में सफलता प्राप्त की है.
डॉ० जे. वी. ल्यूको की खोजों ने यह तथ्य प्रस्तुत किया है
कि मस्तिष्क स्वेच्छाचारी नहीं है और उस पर मनुष्य का अपना अधिकार ही सीमित नहीं
है. वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा मस्तिष्कों की दिशा उल्टी की जा सकती है और आज की
तरह सोचने वाला व्यक्ति कल दूसरी तरह सोचने के लिए विवश किया जा सकता है. न्युरोंस
की सिनेप्टिक हलचल में हेर-फेर कर के मानसिक स्तर पर हेर-फेर किया जा सकता है.
इसके लिए नियत स्थान पर उपयुक्त मात्रा में विद्दुत प्रवाह पहुँचा देने का कौशल
हाथ में आ जाने से बहुत काम चल सकता है. डॉ० जे. वि. ल्यूको ने तिलचट्टे जीवों में
ऐसी नै आदतें डाली, जो उनके पूर्वजों जैसी भी नहीं थी. बिल्ली और चूहों की दुश्मनी
पुरानी है पर मस्तिष्कीय परिवर्तन से यह संभव हो गया है की परम्परागत शत्रुता
समाप्त हो जाये और वे दोनों हिल-मिल कर रहने लगे.
राइबोन्यूक्लिक एसिड (अर० एन० ए०) नामक रसायन मस्तिष्कीय
चेतना का आधार स्तम्भ ठहराया गया है. स्वीडन के डा० हाल्गर हाइडन के प्रयोगों में
इस रसायन की मात्रा विभिन्न चेतना की परतों में घटा-बढ़ा कर प्राणियों के सोचने के
तरीकों को बदलने में अच्छी सफलता प्राप्त की है.
टेक्सास विश्वविद्यालय के डा० जेम्स मेक्कोनल और डा०
रोबर्ट थाम्पसन ने मस्तिष्कीय संरचना की दृष्टि से पानी में पाए जाने वाले आधा इंच
के चपटी किस्म के प्लेरियन कीडे को अधिक उपयुक्त पाया गया और उसे इन प्रयोगों के
लिया चुना गया. इस कीड़े की मस्तिष्कीय कोशिकाओं की उखाड़-पछाड़ करके वे यह प्रयत्न
कर रहे हैं कि उसकी आदतें नये ढांचे में ढल जाएँ और फिर उसी नई रीति-नीति की
अभ्यस्त उसकी भावी पीढ़ीयां बन जाये. डा० डी. अलबर्ट ने चूहों की एक ऐसी जाति पैदा
की है जिसकी शक्ल अपने पूर्वजों की ही तरह है पर उनका सोचना और करना बिल्किउल नये
ढंग का है.
मस्तिष्कीय संरचना का जितना गहरा अध्यन किया गया है उसके
आधार पर यह पता चलता जा रहा है कि कपाल के भीतर भरी मज्जा के अंतर्गत सूक्ष्म घटक,
जितने सूक्ष्म, जितने अधिक और जितने सक्षम होते हैं उसी अनुपात में बुद्धिमत्ता का
विकास होता है. यह घटक अगणित वर्गों के हैं और उन्ही के वर्ग विकास पर मानसिक
गतिविधियों का निर्माण निर्धारण होता है.
यह समझा जाता रहा है कि विकसित प्राणियों का मस्तिष्क बडा
होता है. पर बात ऐसी नहीं है. मस्तिष्क का भर भी शरीर के वजन अनुपात पर निर्भर है.
व्हेल का मस्तिष्क ७ किलो , हाथी का ५.२ किलो, डोल्फिन का १.८ किलो आदमी का १.३५०
किलो, घोड़े का ६५० ग्राम, गैंडे का ६००ग्रम, गोरिल्ला का ५०० ग्राम , कुत्ते का
१३० ग्राम, बिल्ली का ३० ग्राम होता है. इन आधार पर इन प्राणियों का समझदारी का
लेखा-जोखा नहीं लिया जा सकता.
समझदारी का मस्तिष्क के वजन से सीधा सम्बन्ध नहीं, वरन इस
बात से है कि उनमे न्यूरांस कितने हैं और ये परस्पर कितनी सफलतापूर्वक सम्बद्ध हो
कर एक-दुसरे के पूरक बनते हैं. मानव मस्तिष्क में प्रायः १४० अरब न्यूरांस होतें
हैं और उनकी संरचना ऐसी है जिसके अनुसार हर न्यूरांस अपना निर्धारित कार्य ही नहीं
करता वरन दुसरे न्यूरांस के क्रिया-कलापों में भी भारी योगदान करता है. मानवीय
बुधिमत्ता का रहस्य इसी में है.
डा० कैमरान के अनुसार मस्तिष्कीय कणों का मध्यवर्ती
न्यूक्लिक एसिड इस विद्दुत संवेग का उत्पादक एवं नियंत्रणकर्ता हैं. रासायनिक
बैट्री की तरह यह एसिड ही मस्तिष्क में विभिन्न स्तर के संवेदन-संवेग उत्पन्न करता
है. इस अम्ल की स्तिथि पर मस्तिष्क स्तर बहुत कुछ अवलंबित रहता है इसके लिए कुछ
पूर्व ही मैग्नीशियम पेंसिलीन आविष्कृत हुई. केन्सास विश्वविद्यालय के
रसायनवेत्ताओं ने इसी प्रयोजन के लिए कुछ प्रोटीन एटम्स दूंढ निकाले हैं और उनका उपयोग
मस्तिष्कीय क्षमता को विकसित एवं संतुलित करने के लिए किया है.
समझाने-बुझाने के झंझट में पड़ने की अपेक्षा किसी को
अभीष्ट चिन्तन के लिया बाध्य करना और मंद बुद्धि समझे जाने वाले मस्तिष्कों को
प्रतिभा-संपन्न बनाना उपचार पद्धति के सहारे भी संभव हो सकता है. अब
विज्ञानवेत्ताओं को यह विश्वास दिन—प्रतिदिन प्रबल होता जा रहा है. मस्तिष्कीय
कोशिकाओं का परस्पर एक-दुसरे के साथ सघन सम्बन्ध है. इस संबध में सूत्र को जोड़ने
का काम एक विद्दुत प्रवाह करता है. यह प्रभाव मनःचेतना के इच्छानुसार विभिन्न
परतों में घूम जाता है और अरबों कोशिकाओं में बिखरी हुई क्षमताओं एवं स्मृतियों
में से अपने अभीष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप तथ्यों को ढूढ़ लाता है. यह कोशिकाओं के
मध्य सम्बन्ध सूत्र जोड़ने वाला विद्दुत प्रवाह यदि मंद हो, अवरुद्ध हो कर चले तो
मनुष्य मंद बुद्धि, दीर्घ सूत्री अथवा भुलक्कड स्तर का बन जायेगा. यह प्रवाह जितना
तीब्र गति से, सुव्यवस्थित एवं संवेदनशील होगा, उसी अनुपात में मनुष्य की
बुद्धिमत्ता एवं कार्यकुशलता बढेगी.
मस्तिष्क को रीढ़ की हड्डी से जोड़ने वाले रेटिकुलर
फार्मेशन की हरकतों को समझना और उसे प्रभावित करना जब जितनी मात्रा में संभव होता
जायेगा, उसी अनुपात में मनुष्य को कृत्रिम रीति से हर्ष, शोक की अनुभूतियों से
आच्छादित किया जा सकेगा, तब घटनाओं या उपलब्धियों के इंतजार में किसी को प्रसन्नता
से वंचित नहीं रहना पड़ेगा. अमुक रसायन या अमुक इलेक्ट्रोड से किसी को धन कुबेर,
सत्ताधारी सम्राट अथवा सिद्ध योगी जैसी प्रचुर प्रसन्नता सहज ही प्रदान कर दिया
करेगी.
रुसी वैज्ञानिक प्रो० एनोखीन ऐसी दावा विनिर्मित करने में
सफल हो गए हैं जो पीढित अंगों में होने वाले दर्द के कष्ट से रोगी को बचा लगी. इस
औषधि का नाम है –“एमीनाजाइन”. यह रेटिकुलर फार्मेशन में स्तिथ पीढ़ा संवेदन केंद्र
को जकड लेती है फिर भले ही कोई मांस काटता रहे किसी प्रकार की दर्द की अनुभूति न
होगी. बिना निद्रा में लाये इस प्रकार संज्ञाशून्यता उत्पन्न करने का यह अपने ढंग
का अनोखा प्रयोग है. एड्रेनलीन वर्ग की इस
प्रकार की औषधियों का आनेवाले दिनों में ताँता लगने वाला है. सोचा यह जा रहा है कि
प्रसव से लेकर सिर-दर्द, साइटिका, उदरशूल जैसी व्यथाओं के रहते हुए भी बिना कष्ट
सहे लोग अपना काम निपटाते रहे और जब आपरेशन की जरुरत पड़े तो बिना कष्ट की अनुभूति
सहे वह काम भी हजामत बनाने की तरह सफलतापूर्वक निपट जाया करे.
मस्तिष्क नियंत्रण के सूत्र जैसे-जैसे हाथ में आते जा
रहें हैं वैसे-वैसे उनके लाभों का गुणगान बढा-चढ़ा कर किया जाने लगा है कि औषधि
उपचार, चीर-फाड़, अंगों का प्रत्यारोपण, प्लास्टिक सर्जरी, विद्दुत आघात, विकरण आदि
के प्रयोगों द्वारा जिस प्रकार शारीरिक रुग्णता से निपटने के लिए प्रगति हो रही
है, उसी प्रकार मानसिक रोगों से छुटकारा पाया जा सकेगा. मनोव्यथाओं से छुट्टी
मिलेगी. इतना ही नहीं मन के न मानने जैसा
अवरोध भी न रहेगा, उसे जैसा ढाला, मोड़ा जाना है, उसके लिए किसी अविज्ञात प्रेरणा
के प्रवाह में बहता हुआ सहज ही तैयार तत्पर हो जायेगा. तब अनुशासन के लिए नियम
प्रतिबंध न लगाने पड़ेंगे वरन कुछ उपचार द्वारा ही यह सब झंझट निपटा लिया जायेगा.
देखने-सुनने में यह सब्जबाग बहुत ही अच्छा लगता है पर
इसमें यह भयानक संकट छिपा बैठा है कि चन्द सत्ताधारी इन उपचारों को हस्तगत करके
प्रजा को अमुक उपचार लेने के लिए बाध्य कर दें, जिस प्रकार लड़ाई के दिनों अनिवार्य
सैनिक भर्तियों को अनिवार्य किया जाता है. ऐसी दशा में जनसाधरण को स्वतंत्र चेतना
से वंचित हो कर चन्द लोगों के हाथ की कठपुतली मात्र बन कर रहना होगा.
मस्तिष्कीय चेतना को बाह्य पदार्थों और उपकरणों से
प्रभावित करने की दिशा में विज्ञान दिनों-दिन आगे बढता जा रहा है. यह सम्बह्वना
दिख रही है कि स्वतंत्र चेतना या स्वतंत्र चिंतन का अगले दिनों अस्तित्व ही नहीं
रह पायेगा. विज्ञान इस फ़िराक में है कि न केवल भौतिक पदार्थों की सुख-सुविधाओं के
लिए मनुष्य को लुभाया, ललचाया अथवा पराश्रित बनाया जाये वरन इससे भी एक कदम आगे बढ़
कर यह किया जाये कि उसका अपना कोई स्तर ना रहे. समर्थ लोगों के इशारे पर चल रहा
विज्ञान तब मनुष्य समूह का उपयोग मक्खी-मच्छर की तरह करेगा और न केवल उनका शरीर
वरन मन भी किन्ही क्रिया कुशल हाथों से नियंत्रित होगा. भला आत्म-विस्मृति के के
गर्त में गिर जाने के बाद फिर उद्धार की आशा किस प्रकार की जा सकेगी.
यह विभीषिका अणु बमों से भी खतरनाक है. उसमे एक ऐसी
चिरस्थायी, बौद्धिक पराधीनता की संभावनाएं विद्यमान हैं जिसमे एक बार फंस जाने के
बाद फिर कभी उबरना संभव ही न हो सके. स्वतंत्र चिंतन के आधार पर ही तो मनुष्य ने
एक से बढ़ कर एक बहुमुखी प्रगति की है और अवांछनीयता से लोहा लिया है. यह स्वतंत्र
चिंतन यदि सर्व-साधारण के हाथ से निकल गया और चन्द लोगों के हाथ की कठपुतली बन कर
समाज को रहना पडा तो वह उतनी बड़ी क्षति होगी जिसकी किसी भी प्रकार से पूर्ती न की
जा सके. समय रहते हमें निशाश्त्रीकरण की तरह बौद्धिक जड़ता से जकड देने वाली
सम्भावना के विरुद्ध भी विश्व का लोकमत यहाँ जाग्रत करना चाहिए. मस्तिष्कीय
दुर्बलता और रुग्णता दूर करने तक ही इन प्रयोगों को सीमाबद्ध रकः जाना चाहिए,
चिंतन पर नियंत्रण करने की दिशा प्रतिबंधित रहे तभी महत्वाकांक्षी अधिनायकों के
चुंगल से स्वतंत्र चेतना की रक्षा की जा सकेगी.
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