सहस्त्रार जगाये, दिव्य क्षमता
पायें
मानवी सत्ता का मौलिक केंद्र-स्त्रोत ब्राह्मी चेतना है.
पृथ्वी के उत्तर और दक्षिण ध्रुव के समान ही मानवी सत्ता के दो ध्रुव हैं.
सहस्त्रार और मूलाधार. सहस्त्रार को उत्तरी ध्रुव के समकक्ष समझा जाता है. जिस
प्रकार सूर्य के अनुदान उत्तरी ध्रुव पर बरसते हैं और सम्पूर्ण पृथ्वी इस केंद्र
से आवश्यकता के अनुरूप शक्ति प्राप्त करती है. उसी प्रकार ब्राह्मी चेतना का
चैतन्य प्रवाह अन्तरिक्ष में सतत प्रवाहित होता रहता है. मनुष्य के शरीर में वह
सहस्त्रार के माध्यम से अवतरित होता है तथा दक्षिणी ध्रुव मूलाधार तक पहुँचता है.
सहस्त्रार चक्र मस्तिष्क के मध्य में अवस्तिथ बताया गया
है. सिर के मध्य में एक हज़ार पंखुड़ियों वाला कमल है. उसे ही “सहस्त्रार चक्र” कहते
हैं. उसी में ब्राहमीशक्ति या शिव का वास बताया गया है. यहीं आकार कुंडलिनी
महाशक्ति शिव से मिलती है. यहीं से सारे शरीर के गतिविधियों का उसी प्रकार संचालन होता
है जिस प्रकार परदे के पीछे बैठा कलाकार उँगलियों को गति देकर कठपुतिलियों को
नचाता है. इसे आत्मा की अधिष्ठात्री स्थली भी कह सकतें हैं. विराट ब्रह्म में हलचल
पैदा करने वाली साड़ी सूत्र शक्ति और विभाग इसी सहस्त्रार के आस-पास फैले पड़े हैं.
सहस्त्रार का शाब्दिक अर्थ है –हज़ार पंखुड़ियों वाला.
शास्त्रों में इसका अलंकारिक वर्णन विभिन्न रूपों में किया गया है. सहस्त्र दल
कमल, कैलाश पर्वत, शेषनाग, क्षीरसागर जैसे दिव्य संबोधन इसी के लिए प्रयोग किये गए
हैं. उपाख्यान आता है कि क्षीर सागर में शेष नाग पर भगवान् विष्णु शयन करतें हैं. इस
अलंकारिक वर्णन में इस तथ्य का उद्घाटन किया गया है कि जीव सत्ता के उधर्वस्थल
अर्थात दैवीय गुणों से संपन्न चेतना में ही परमात्मा अवतरित होते-निवास करते हैं.
सहस्त्रार को कैलाश पर्वत के रूप में इंगित करने तथा भगवान शंकर के तपरत होने पर
भी उसी तथ्य का वर्णन हुआ है. यही वह केंद्र है जहाँ जागृत होने पर कुंडलिनी
सुशाम्नामार्ग का भेदन करती हुई ब्रह्मलोक में पहुँच कर मोक्ष प्रदान करती है. इस
सहस्त्रार चक्र तक पहुँचने पर ही साधक को अमृतपान का सुख, विश्वदर्शन, संचालन की
शक्ति और समाधि का आनंद मिलता है और वह पूर्ण ब्रह्म को प्राप्त कर अनंतकाल तक
एश्वर्य और सुखोपभोग करता है.
योग शास्त्रों के अनुसार सहस्त्रार दोनों कनपटियों से
दो-दो इंच अन्दर और भौहों से भी तीन-तीन इंच अन्दर मस्तिष्क मध्य में ‘महा विवर’
नमक महाछिद्र के ऊपर छोटे से पोले भाग में ज्योतिपुंज के रूप में अवस्तिथ है.
तत्वदर्शियों के अनुसार यह उलटे छाते या कटोरे के समान सत्रह प्रधान प्रकाश तत्वों
से बना होता है, देखने में मर्कुरी लाइट के समान दिखाई देता है. छान्दोग्य-उपनिषद
में सहत्रार दर्शन की सिद्धि का वर्णन करते हुए कहा गया है :-“तस्य सर्वेषु लोकेषु
कामचारो भवति” अर्थात सहस्त्रार को जागृत कर लेने वाला व्यक्ति सम्पूर्ण भौतिक
विज्ञान की सिद्धियाँ हस्तगत कर लेता है. यही वह शक्ति केंद्र है जहाँ से मस्तिष्क
शरीर का नियंत्रण करता है और विश्व में जो कुछ भी मानवकृत विलक्षण विज्ञान दिखाई
देता है, उसका संपादन करता है. मस्तिष्क मध्य स्थित इसी केंद्र में एक विद्दुत
उन्मेष रह-रह कर सतत प्रस्फुटित होता रहता है जिसे एक विलक्षण विद्दुतीय फब्बारा
कहा जा सकता है. वहां से तनिक रुक-रुक कर एक फुलझड़ी सी जलती रहती है, ह्रदय की
धड़कन में भी ऐसे ही मध्यवर्ती विराम “सिसटोल और डिसटोल” अर्थात लपडप-लपडप के मध्य रहतें हैं. मस्तिस्कीय मध्य में स्थित
इस बिंदु से भी इसी तरह की गति-विधियाँ संचालित होती रहती हैं. वैज्ञानिक इन
उन्मेषों को मस्तिष्क के विभिन्न केंद्रों की सक्रियता-स्फुरणा का मुख्य आधार मानते
हैं. संत कबीर ने इसी के बारे में कहा:- “हिरदय बीच अनहत बाजे, मस्तक बीच फब्बारा”
यह फब्बारा ही रेटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम है. मस्तिष्क में विलक्षण केंद्रों की
बात अब वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं. प्रख्यात न्यूरोलॉजिस्ट डा० स्मिथी के अनुसार
“प्योर इंटेलिजेंस” शुद्ध बुद्धि मानवी मस्तिष्क के विभिन्न केंद्रों से नियंत्रित
होती है. यह सबकी साझेदारी का उत्पादन है. यही वह सार भाग है जिससे व्यक्तित्व का
स्वरूप बनता और निखरता है. स्मृति,विश्लेषण, संश्लेषण, चयन, निर्धारण, आदि की
क्षमताएं मिलकर ही मानसिक स्तर बनाती हैं. इनका समिश्रण, उत्पादन कहाँ होता है? वे
परस्पर कहाँ गुंथती हैं ? इसका ठीक से निर्धारण तो नहीं हो सका, पर समझ गया है कि
वह स्थान लघु मस्तिष्क-सेरिबेलम में होना चाहिए.
यही वह मर्मस्थल है, जिसका थोडा सा विकास-परिष्कार संभव हो सके तो
व्यक्तित्व का ढांचा समुन्नत हो सकता है. इसी केंद्र स्थल को आध्यात्मिक
शास्त्रियों ने बहुत्समन्य पूर्व जाना, और उसका नामकरण “सहस्त्रार चक्र” किया.
शरीर शास्त्र के अनुसार मोटे विभाजन की दृष्टि से
मस्तिष्क को पांच भागों में विभक्त किया गया है:-
(१) बृहद मस्तिष्क – सेरीब्रम
(२) लघु मस्तिष्क – सेरिवेलम
(३) मध्य मस्तिष्क –मिड ब्रेन
(४) मस्तिष्क सेतु – पांस
(५) सुषुम्ना शीर्ष - मेडुला आँवलागेटा
इसमें से अंतिम तीन को संयुक्त
रूप से मस्तिष्क स्तम्भ ब्रेन स्टेम भी कहते हैं. इस प्रकार मस्तिष्क के गहन
अनुसंधान में ऐसी कितनी ही सूक्ष्म परतें आती हैं जो सोचने-विचारने सहायता देने भर
का नहीं वरन समूचे व्यक्तित्व के निर्माण में भारी योगदान करती है. वैज्ञानिक इस
तरह की विशिष्ट क्षमताओं का केन्द्र ‘फ्रंट लोब’ को मानते हैं जिसके द्वारा मनुष्य
के व्यक्तित्व, आकांक्षाएं, व्यवहार प्रक्रिया, अनुभूतियाँ, संवेदनाएं आदि अनके
महत्वपूर्ण प्रवत्तियां का निर्माण और निर्धारण होता है. इस केंद्र को प्रभावित कर
सकना किसी भी औषधि उपचार या शल्य क्रिया से संभव नहीं हो सकता. इसके लिए योग साधना
की ध्यान-धारणा जैसी उच्च स्तरीय प्रक्रियाएं ही उपयुक्त हो सकती हैं, जीने
कुंडलिनी-जागरण के नाम से जाना जाता है.
आध्यात्म शस्त्र के अनुसार
मस्तिष्क रुपी स्वर्गलोक में यूँ तो तैतीस कोटि देवता रहतें हैं, पर उनमे से पांच
मुख्य हैं. इन्ही का समस्त देवस्थान पर नियंत्रण है. ऊपर वर्णित मस्तिष्क के पांच
विभाग इन्ही पांच देवों की परिधि भी कह सकते हैं. इन्ही के द्वारा पांच कोशों की
पांच शक्तियों का संचार-संचालन होता है. गायत्री की उच्च स्तरीय पंचकोशी साधना में
इन्ही पांचो को समान रूप से विकसित होने का अवसर मिलता है. तदनुसार इस ब्रह्मलोक में,
देवलोक में निवास करने वाला जीवात्मा स्वर्गीय परिस्थितियों के बीच रहता हुआ अनुभव
करता है.
यह एक प्रकार से विभाजन की बात
हुई. अनेक विद्द्वान एक ही तथ्य को विभिन्न प्रकार से विवेचन करते हैं. मस्तिष्क
के विभाजन तथा सहस्त्रार चक्र के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार एक ही तथ्य
भिन्न-भिन्न विवेचन मिलते हैं. शास्त्रों में इसी को अमृत कलश कहा है. उसमे से
सोमरस स्त्रवित होने की चर्चा है. देवता इसी अमृत कलश से सुधा पान करते और अजर अमर
बनते हैं. वर्तमान वैज्ञानिक की मान्यता के अनुसार मस्तिष्क में एक विशेष द्रव्य
भरा रहता है जिसे “सेरिब्रो स्पाइनल फ्लूइड” कहते है. यही मस्तिष्क के विभिन्न
केन्द्रों को पोषण और संरक्षण देता रहता है. मस्तिष्कीय झिल्लियों से यह रिसता
रहता है और विभिन्न केंद्रों एवं सुषुम्ना में सोखा जाता है. अमृत कलश में सोलह
पटल गिनाये गए है. इसी प्रकार कहीं-कहीं सहस्त्रार चक्र की सोलह पंखुड़ियों का
वर्णन है. मस्तिष्क के ही सोलह महत्वपूर्ण विभाग-विभाजन है. शिव संहिता में भी
सहस्त्रार की भी सोलह कलाओं का वर्णन करते हुए कहा गया है “कपाल के मध्य चंद्रमा
के समान प्रकाशवान सोलह कला युक्त सहस्त्रार चक्र का ध्यान करे.” वस्तुतः
सहस्त्रार की ये सोलह कलाएं मस्तिष्क के सेरिब्रोस्पाइनल फ्लूइड से सम्बंधित
मस्तिष्क के सोलह भाग हैं. इन सभी विभागों में शरीर को संचालित करने वाले एवं
अतीन्द्रीय क्षमताओं से युक्त अनेक केंब्द्र हैं. सहस्त्रार के अमृत कलश को जागृत
कर कर योगीजन उन्हें अधिक सक्रीय बनाकर असाधरण लाभ प्राप्त करते हैं. योग
शास्त्रों में इन्हें ही रिद्धियाँ-सिद्धियाँ कहते हैं. षटचक्र निरूपण नमक योग
ग्रन्थ के अनुसार इस सहस्त्रार कमल की साधना से योगी का चित्त स्थिर होकर आत्म-भाव
में लीन हो जाता है. तब यह समग्र शक्तियों से संपन्न हो जाता है और भव-बंधन से छूट
जाता है. सहस्त्रार से निस्सृत हो रहे अमृत का निरंतर पान करने वाले अकाल मृत्यु
पर भी विजय प्राप्त कर लेता है.
सहस्त्रार क्या है ? इसका उत्तर
शरीर शास्त्र के अनुसार अबितना मात्र जाना जा सकता है कि मस्तिष्क के माध्यम से
समस्त शरीर के संचालन के लिए जो विद्दुत उन्मेष पैदा होते हैं, वे आहार से नहीं
वरन मस्तिष्क के एक विशेष संस्थान से उद्भूत होते हैं. वह मनुष्य का अपना उत्पादन
नहीं है वरन दैवीय अनुदान है. अध्यात्म वेत्ता इसे ही सहस्त्रार चक्र कहते हैं
जिसका सम्बन्ध ब्रह्मरंध्र से होता है. ब्रह्मरंध्र को दशम द्वार कहा गया है. नौ
द्वार हैं :- दोनों नथुने, दो आंखे, दो कान, एक मुख, दो मल-मूत्र के छिद्र. दसवां
ब्रह्मरंध्र है. योगीजन इसी से होकर प्राण त्यागते हैं. मरणोंपरान्त कपाल-क्रिया
करने का उद्द्येश्य यही है कि प्राण का कोई अंश शेष रह गया हो तो वह भी इसी मार्ग से निकले और
उधर्वगति प्राप्त करे. योग शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मसत्ता का ब्रह्मांडीय चेतना
का मानव शरीर में प्रवेश सहस्त्रार स्थित इसी मार्ग से होता है. इसी के माध्यम से
दिव्य शक्तियों एवं दिव्य अनुभूतियों का आदान-प्रदान होता है. सहस्त्रार और
ब्रह्मरंध्र मिल कर एक संयुक्त इकाई के रूप में काम करते हैं. अतः योग साधना में
इन्हें संयुक्त रूप से प्रयुक्त प्रभावित करने का विधान है.
मानवी काया की धुरी उत्तरी
ध्रुव सहस्त्रार और ब्रह्मरंध्र ब्रह्मांडीय चेतना के साथ संपर्क बना कर आदान-प्रदान
का पथ प्रशस्त करता हैं. भौतिक शक्तियाँ और आध्यात्मिक सिद्धियाँ जागृत सहस्त्रार
के सहारे निखिल ब्रह्मांड से आकर्षित की जा सकती हैं. सहस्त्रार में जैसा भी
चुम्बकत्व होता है उसी स्तर का अदृश्य वैभव खींचता और जमा होता रहता है. यही जीवन
का अदृश्य उपार्जन उसके स्तर एवं व्यक्तित्व का सूक्ष्म निर्धारण करता है. चेतन और
अचेतन मस्तिष्कों द्वारा जो इन्द्रीय गम्य और अतीन्द्रीय ज्ञान उपलब्ध होता है,
उसका केंद्र यही है. ध्यान से लेकर समाधि तक और आत्मिक चिंतन से लेकर भक्ति योग तक
की समस्त साधनाएं यहीं से फलित होती हैं. ओजस, तेजस और वर्चस्व के रूप में
पराक्रम, विवेक और आत्मबल की उपलब्धियों का अभिवर्धन यहीं से उभरता है. ईश्वरीय
अनुदान इसी पर अवतरित होता है. इस सहस्त्रार चक्र की साधना द्वारा वह क्षमता
विकसित की जा सकती है जिसमे चैतन्य प्रवाहों को ग्रहण कर अपने को दैवीय गुणों से
सुसंपन्न बनाय जा सके.
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