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चक्र-उप्तिय्काओं का रहस्यमय लीलाजगत अपने ही भीतर
(भाग ...१)

साधना विज्ञान में चक्रों के रूप के रूप में जिन शक्तियों की चर्चा है वह वास्तव में और कुछ नहीं , विभिन्न चेतनात्मक स्तर हैं. इन भूमिकाओं में पहुँच कर साधक चेतना के भिन्न-भिन्न आयामों की अनुभूति करता हुआ उस सर्वोच्च शिखर पर पहुँचता है, जिसे सहस्त्रार कहतें हैं. पिछले दिनों तक विज्ञानवेत्ता उन्हें कपोलकल्पना भर मानते थे, पर तंत्रिका शास्त्र का गहन अध्यन के उपरांत इनकी संगति मस्तिष्क और मेरुरज्जु के विभिन्न केंद्रों से बिठाने में सफल हो गये. देखना यह है की विज्ञान-अध्यात्म का यह समागम सार्वसाधारण के लिए कितना उपयोगी साबित होता है?

मनुष्य जीवन-विकास यात्रा का सिक पड़ाव है. इस पड़ाव का सम्बन्ध हमारे सूक्ष्म-संस्थानों एवं चक्रों से है अर्थात आज हम जिस स्तर पर अवस्थान कर रहे हैं, वह यथार्थ में इन्ही शक्ति-केंद्रों की सक्रियता का परिणाम है. दुसरे शब्दों में इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि व्यक्ति-व्यक्ति के दृष्टिकोण और सोचने के तरीकों में जो भिन्नता दिखाई देती है, वह पृथक-पृथक चेतना केंद्रों की सक्रियता और निष्क्रियता प्रदर्शित करती है. उदहारण के लिए संसार के प्रति आदमी का दृष्टिकोण को लिया जा सकता है. स्वाधिष्ठान चक्र में अवस्थित होने पर मनुष्य दुनिया को इच्छापूर्ति के माध्यम के रूप में देखता है. मनिपूरित में होने पर शक्ति की आपूर्ति के रूप में तथा अनाहत में प्रतिष्ठित होने पर जीवन का उद्देश्य मात्र लोकमंगल होता है.

आध्यनों से ज्ञात हुआ है कि एक ही चक्र में अवस्थान करने के बावजूद दो व्यक्तियों के स्तर और स्थिति में भिन्नता हो सकती है. यह संभव है कि हमारी चेतनात्मक अभिव्यक्ति में मणिपूरित ही सर्वांश में झलकता-झांकता हो, इतने पर भी ऐसे प्रत्येक व्यक्ति की सक्रियता, सजगता एवं विकास में अंतर दिखाई पद सकता है. इसका करण एक ही है—व्यक्ति-व्यक्ति के चक्र जागरण का भिन्न-भिन्न स्तर. इसे उसके व्यक्तित्व एवं कर्तव्य से जाना-समझा जा सकता है. यदि वह व्यक्तिगत स्वार्थों और निषेधात्मक गति-विधियों में ही उलझा रहता है, तो यह कहा जा सकता है कि उसकी अवस्थिति जागरण प्रक्रिया के एकदम निचले सोपान में है. वहीँ उसकी रचनात्मक एवं लोकमंगल सम्बन्धी प्रवृत्तियां इस बात का सूचक हैं कि वह चक्र जागरण की उच्च भूमिका में आसीन है. साधना विज्ञान के आचार्यों का मत है कि बालकों की तुलना में वयस्कों में मणिपूरित चक्र प्रायः अधिक विकसित होता है, फिर भी सभी लोगों में ऐसा होना आवश्यक नहीं है.

चक्र-जागरण जहाँ व्यक्ति को अलौकिक अनुभूतियाँ और गुप्त शक्तियों से भर देता है, वहीँ भौतिक स्तर पर उसमे अनके ऐसी क्षमताएं विकसित हुई दृष्टिगोचर होती है, जीने साधारण नहीं असाधारण कहना चाहिए. साधना शास्त्र के मर्मज्ञों के अनुसार, मूलाधार चक्र के उन्नयन से वक्तृत्व कला, आरोग्यता, काव्य और लेखनशक्ति जैसे गुणों का विकास होता है. स्वाधिष्ठान से निरहंकारिता, मोहनिवृत्ति रचना शक्ति मणिपूरित से वाकसिद्धि, अनाहत से इन्द्रीयजय, विशुद्धि से दीर्घजीवन, तेजस्विता, सर्वहितपरायणता, आज्ञा से विवेक और सहस्त्रार से भक्ति तथा अमरता.

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है की हर चक्र का सम्बन्ध शरीर के विशिष्ट अंगों से होता है. इसलिए वे अंग तथा इन्द्रियाँ उन चक्रों की इन्द्रियां कहलाती हैं. यूँ तो चक्र अपनी सूक्ष्म शक्ति को समस्त शरीर में प्रवाहित करते हैं, पर एक ज्ञानेंद्रीय और एक कर्मेंद्रीय से उनका सम्बन्ध विशेष रूप से होता है. सम्बंधित इन्द्रियों को वे अधिक प्रभावित करते हैं. चक्रों के जागरण के चिन्ह उन इन्द्रियों पर तुरंत परिलक्षित होते हैं.

शरीरविज्ञान के गहन अध्यन के उपरांत वैज्ञानिकों ने योगशास्त्रों में वर्णित विभिन्न शक्ति केंद्रों अथवा चक्रों सम्बंधित गुत्थी को सुलझाने में काफी हद तक सफलता अर्जित की है. उनका कहना है कि चक्रों की शरीरशास्त्र की दृष्टि से व्याख्या-विवेचना की जाय, तो उन्हें मेरुरज्जु में स्थित विभिन्न प्रकार के नाड़ीगुच्छक कहने पड़ेंगे. इन गुच्छकों का सम्बन्ध कई प्रकार के अन्तःस्त्रावी ग्रुन्थियों से होता है. इसके अतिरिक्त मस्तिष्क में इनके पृथक-पृथक केंद्र होते हैं. वे कहते हैं कि यदि इन केंद्रों को जगाया जा सके, तो चक्रों को प्रभावित किया जा सकना संभव है अर्थात वे इसे उभयपक्षी प्रक्रिया मानते और कहते हैं कि चक्रों के जागरण द्वारा मस्तिष्क के सम्बंधित भागों को उत्तेजित करना या उन-उन भागों को प्रभावित कर चक्रों को उद्दीपन करना एक ही बात है.

“नैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ´अमेरिका के न्यूरोफिजियोलाँजी विभाग के अध्यक्ष डा० पॉल मैक्लीन अपनी रचना “ए ट्राईयून कन्सेप्ट ऑफ़ दि ब्रेन” में लिखते हैं कि मस्तिष्क के तीन स्तर वास्तव में मनुष्य में पाए जाने वाके सात्विक, राजसिक और तामसिक जैसे तीन गुणों, तीन पृवत्तियों के प्रतीक, प्रतिनिधि हैं. इन्ही तीन स्तरों में चक्रों के सभी गुण एवं विशेषताएं सम्मलित हैं. आश्चर्य की बात यह है कि मस्तिष्क की इन तीन परतों में मुख्य तंत्रिका रसायन “डोपामाईन’ तथा “सेरिटोनिन” की मात्रा भी अलग-अलग होती है. यदि इन स्तरों का सूक्ष्मता से अध्यन किया जाये तो यह संभव है कि योगियों द्वारा वर्णित अनुभवों एवं अनुसंधानों द्वारा उपलब्ध निष्कर्षों में बहुत बड़ी समानता दिखाई पड़े.

त्रिगुणात्मक मस्तिष्क के उक्त तीन स्तरों को क्रमशः रेप्टीलियन ब्रेन, मैमेलियन ब्रेन और निओकारटिक्स कहा गया है. रेप्टीलियन ब्रेन में मेरुरज्जु समेत मस्तिष्क का निचला स्तर आता है. इसके अंतर्गत आत्मरक्षा, प्रजनन, ह्रदय नियंत्रण, रक्त-संचरण एवं श्वसन से सम्बंधित तंत्रिका संस्थान आते हैं. इस मस्तिष्कीय परत से आक्रामकता, सनक, उन्माद जैसी पाशविक प्रुवात्तियां तथा सामाजिक वयवहार तथा परम्पराओं के प्रति आसक्ति जैसी वृत्तियों का नियंत्रण होता है. मैक्लीन कहतें हैं यह योगियों द्वारा वर्णित मूलाधार एवं स्वाधिष्ठान चक्रों के विवरण से बहुत कुछ मिलता-जुलता है.कारण कि इस क्षेत्र के निष्णातों के अनुसार इन केंद्रों द्वारा हमारी प्रमुख एवं मूलभूत पशु-पृवत्तियों यथा आहार, निद्रा एवं प्रजनन आदि का सञ्चालन होता है तथा प्रेम, आनंद, उत्साह एवं आत्म-सजगता जैसे मानवी गुणों का अभाव होता है. उपर्युक्त निम्न पृवात्तियों का सम्बन्ध हमारे चेतन और अचेतन मन से है.

अपने अध्यन एवं अनुसंधान से मैक्लीन एवं उनके सहकर्मी इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अधिकांश व्यक्तियों के जीवन में इसी क्षेत्र की प्रधानता होती है, जो योगविज्ञान के पारंगतों के इस कथन से मेल खाता है कि अधिकाँश व्यक्ति आत्मोन्नति के दो बिकुल आरंभिक सीढ़ियों मूलाधार तथा स्वाधिष्ठान पर अवस्थान करते हैं. ऐसे व्यक्तियों के क्रिया-कलापों का स्तर यद्यपि उच्च केन्द्रों द्वारा परिवर्तित हो जाता है फिर भी हमारा जीवन अधिकतर इन्ही निम्न चक्रों द्वारा नियंत्रित एवं प्रभावित होता है और हम संकुचित सीमाओं में बंधे रहकर अपनी दिनचर्या किसी प्रकार पूरी करते रहते हैं.

उपर्युक्त तथ्य को सिद्ध करने के लिए मैक्लीन में ‘हैमस्टर’ नमक जीव के नवजात शावक के प्रमस्तिष्क बाह्यक को मस्तिष्क से अलग कर दिया. शेष बचे भाग में मात्र आर. कोम्प्लेक्स तथा लिम्बिक सिस्टम रह गए. देखा गया की इसके बावजूद हैमस्टर के बढ़ने की प्रक्रिया साधारण ही बनी रही तथा उसमे उसे कोई रूकावट नज़र न आयी. प्रजनन कार्य यथावत चलता रहा तथा उसके दुसरे क्रिया-कलाप भी सामान्य ढंग से चलते रहे. आश्चर्य तो यह है कि वह दृष्टि सम्बन्धी केंद्र कॉरटिक्स के बिना भी देख सकता था. पक्षियों पर भी यह प्रयोग दोहराया गया. उनके मस्तिष्क के आर. कोम्प्लेक्स को छोड़ कर शेष सभी हिस्सों को नष्ट कर दिया गया. इतने पर भी उनकी दिनचर्या में कोई फर्क न आया. यह इस बात का प्रमाण है कि हमारे अधिकाँश क्रिया-कलाप मस्तिष्क के इन्ही हिस्सों द्वारा संचालित और नियंत्रित हैं तथा मर्यादित जीवनपद्दति हेतु मस्तिष्क के अन्य हिस्सों का प्रयोग नाममात्र ही होता है. साधना विज्ञान की मान्यता भी ऐसी ही है. योगीजन विज्ञान की इस निष्कर्ष से सहमत हैं कि शरीरस्थ उच्च केंद्रों को विरले ही सक्रीय कर पते हैं और यदि वे सक्रीय हो भी गए, तो उन्हें संभाल पाना उनके लिए संभव नहीं हो होता. यही कारण है कि योगी लोग साधना-तपश्चर्या द्वारा शरीर को पहले अनुकूल बनाने की सलाह देते हैं, ताकि उससे उत्पन्न उर्जा को ग्रहण-धारण किया जा सके.         


शेष भाग ......२ में


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