(योग)
ध्यान-धारणा
की सिद्धि बना देती है कालजयी
योग विज्ञान में अन्तरंग साधन का प्रथम चरण ‘धारणा’
कहलाता है. धारणा अर्थात निर्धारित ध्येय में चित्त को एकाग्र करना. यह एकाग्रता
अनायास ही नहीं सध जाती. मन के चंचल होने के कारण वह बार-बार विषय-वासनाओं की ओर
प्रवत्त हो जाता है. उसकी इस वृत्ति को निरुद्धकर मन को ध्येय वास्तु में टिका
देना ही ‘धारणा’ है.
साधारण व्यक्ति और साधारण स्थिति में मन देर तक किसी एक
वास्तु या विषय पर नहीं टिकता और वह वहां नाना प्रकार के भाव, विचार, वास्तु में
भटकता रहता है, किन्तु जब धारणा शक्ति का उदय होता है, तो मन की एकाग्रता को लम्बे
समय तक स्थिर रख सकना संभव होता है. यही एकाग्रता बाद में ध्यान में बदलती है और
अपनी सर्वोच्च भूमिका में ‘समाधि’ कहलाती है. योगदर्शन, विभुतिपाद में महर्षि पतंजलि
लिखते हैं :- “देश्बंध्श्चित्स्स्य धारणा” अर्थात वृत्ति मात्र से किसी स्थान
विशेष में चित्त की स्थिरता ‘धारणा’ है. चित्त बाहरी विषयों को वृत्तिमात्र से
ग्रहण करता है. ध्यानावस्था में जब प्रत्याहार के द्वारा इन्द्रियां अंतर्मुखी हो
जातीं हैं, तब भी वह अपने ध्येय विषय को वृत्ति मात्र से ही ग्रहण करतीं हैं. वह
वृत्ति ध्येय के विषय में तदाकार होकर स्थिर रूप भासने लगता है अर्थात स्थिर रूप
से उसके स्वरूप को प्रकाशित करने लगती है. इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब किसी स्थान
विशेष में चित्त की वृत्ति स्थिर हो जाती है और तदाकार रूप होकर उसका अनुभव होने
लगता है, तो वह धारणा कहलाता है. पृथक-पृथक उपनिषदों में धारणा का जो स्वरूप
बतलाया गया है, उसमे शब्दों की भिन्नता होते हुए भाव की एकरूपता है. जिन उपनिषदों
में योग के पंचदशांग मने गए हैं, वहां तेरहवें अंग के रूप में ; जहाँ योग के आठ
अंग माने गए हैं, वहां छठे अंग के रूप में और जहाँ योग के षडंग अंग स्वीकृत किये
गए हैं, वहां चतुर्थ अंग के रूप में ‘धारणा’ को अंगीकार किया गया है.
त्रिशिखब्राह्मणोंपनिषद (२/३१) में इसके स्वरूप का
प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि चित्त का निश्चली भाव होना ही ‘धारणा’ है.
शरीरगत पंच महाभूतों में मनोधारण रूप धारणा भवसागर को पार करने वाली होती है.
दर्शनोंपनिषद (८/१/३) में धारणा का जो स्वरूप बतलाया गया है, उनके अनुसार शरीरगत
पंचभूतांश बाह्य पंचभूतों की धारणा करना ही यथार्थ धारणा है. इसी में अन्यत्र (८/७-९)
पुरुष अर्थात आत्मतत्व में सच्चिदानंद स्वरूप सर्वशास्ता शिवतत्व की धारणा करने का
उपदेश दिया गया है. योग्तात्वोपनिषद (८४-१०२) शरीर के विभिन्न भागों को पृथ्वी,
जल, तेज, वायु एवं आकाश का स्थान बतलाया गया है. इसमें से प्रत्येक स्थान में पंच
घटिका पर्यंत क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र, ईश्वर एवं शिव को धारण करने से साधक
उन-उन पंच महाभूतों से भयमुक्त होकर खेचरत्व सम्पादित कर सुख प्राप्त करने का
प्रतिपादन किया गया है. इसी में एक अन्य स्थान (६९-७२) पर कहा गया है कि पांच
ज्ञानेन्द्रियों के विषयों में आत्मा या ब्रह्म की भावना होना ही ‘धारणा’ है.
तेजोबिन्दुपनिषद (१/३५) के अनुसार मन के विषयों में ब्रह्म भाव की अवस्थिति होना
‘धारणा’ है. मंडलब्राह्मणोंपनिषद (१/१/६) में चैतन्य में चित्त को स्थापित करना
‘धारणा’ बतलाया गया है. शांडिल्योप्निषद (१/९) में आत्मा में मन, दहराकाश में
बह्याकाश तथा पंच महाभूतों में पंचमूर्ति की धारणा का निरूपण किया गया है. इस
प्रकार विभिन्न उपनिषदों में धारणा का विवेचन एवं प्रतिपादन व्यापक रूप से किये
जाने के कारण उसका स्वरूप अधिक स्पष्ट एवं गम्य हो गया है.
धारणा के अभ्यास में ‘देश’ और ‘बन्ध’ इन दो तत्वों का
विशेष महत्व है. देश अर्थात जिस वस्तु या स्थान पर चित्त को एकाग्र किया जाता है.
और बन्ध अर्थात चित्त को अन्य विषयों से हटाकर एक ही ध्येय विषय पर वृत्तिमात्र से
ठहराना –यह बन्ध कहलाता है. स्थान भेद के हिसाब से ‘देश’ दो प्रकार के होते हैं एक
है आतंरिक या आध्यात्मिक देश तथा बाह्य देश. नाभि, ह्रदय, कपाल, नासिकाग्र,
भ्रकुटी, ब्रह्मरंध्र आदि आध्यात्मिक देश कहलाते है, जबकि सूर्य, चन्द्र, ध्रुव,
इष्ट की मूर्ति, गुरुसत्ता का चित्र, आदि बाह्य देश हैं. इनमे से किसी एक स्थान या
वास्तु पर जब चित्त स्थिर होता है तो वास्तव में उसे वायु की स्थिरता ही समझनी
चाहिए. ऐसा दीर्घकाल तक प्राणायाम आदि का अभ्यास करते रहने से स्वतः हो जाता है.
नाभि आदि स्थानों पर जब वायु की स्थिरता हो जाती है, तो साधक धीरे-धीरे
एकाग्रचित्तता की स्थिति प्राप्त कर लेता है और दृणभूमि हो जाता है. इसके बाद
अभ्यासी जिस भी स्थान पर वायु का निरोध करना चाहता है, कर लेता है. इस स्थिति में
वहां पर प्राणापानादि के विकार दूर हो जाते हैं, फलतः दिव्यशक्तियों का उदय होता
है.
योगतत्वोंपनिषद (७३-७६) में शरीर के भिन्न-भिन्न केंद्रों
पर संयम करने से उद्भूत होने वाली शक्ति का विस्तार से उल्लेख किया गया है.
नाभिचक्र में संयम करने वालों की जठराग्नि में सूक्ष्मता और विशेष बल आ जाता है.
जिसका प्रभाव सम्पूर्ण शरीर पर पड़ता है. जठराग्नि, शरीगत सभी प्रकार के पाचन,
परिवर्तन एवं परिवर्धन के लिए उत्तरदाई है. यह सभी क्रियाओं, संस्थानों तथा अवयवों
की नियंत्रक, पोषक तथा धारक है. वह शरीर के सूक्ष्मतम अंश अणु अंश को भी अपने तेज
और पाकक्रिया से प्रभावित करती है. उसमे सूक्ष्मता और विशेष बल सम्पन्नता आ जाने
से सम्पूर्ण पाचन संस्थान में एक अभूतपूर्व परिवर्तन हो जाता है, जिसके परिणाम
स्वरूप योगी के शरीर में किसी प्रकार की विकृति या व्याधि उत्पन्न नहीं होती. उसकी
भूख और प्यास नियंत्रित हो जाती है, जिससे कई कई दिनों तक योगी यदि आहार ग्रहण न
करे, तब भी उसके शरीर पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है.
जठराग्नि के दिव्य प्रभाव से योगी के शरीर में रस-धातु का
निर्माण तेजी से होता है तथा मॉल-मूत्र का निर्माण अल्प मात्रा में निर्गंध संयत
रूप में होता है. योगी के शरीर में धातुसाम्य रहने से रोगादि विकार उत्पन्न नहीं
होते, जिससे अंगों, प्रत्यंगों में स्फूर्ति, उत्साह और क्रियाशीलता बनीं रहती है.
कपाल में संयम करने अर्थात
धारणा करने से धी-धृति-स्मृति (बुद्धि-धैर्य-स्मरण शक्ति) अत्यंत सूक्ष्म हो जाती
है. जिससे योगी गहनतम, सूक्ष्मतम, गंभीरतम और दुर्बोध विषयों को ग्रहण-धारण और
स्मरण रखने की अपूर्व सामर्थ्य वाला हो जाता है. फिर उसके लिए कोई भी विषय आगामी
नहीं रह जाता.
नासाग्र में संयम करने से “दिव्य
गंध” और जीव्हा के अग्र भाग पर संयम करने पर ‘दिव्य
रस’ की अनुभूति होती है. कंठकूप में संयम करने से क्षुधा-तृषा आदि विकार भावों पर
नियंत्रण एवं विजय प्राप्त होती है. योगी को वायु के द्वारा ही उत्तमोत्तम रस्वादन
होता रहता है, जिससे उसे भूख-प्यास का अनुभव ही नहीं होता. ह्रदयकमल
में संयम करने पर योगी का चित्त स्फटिक मणि की भांति निर्मल और स्वच्छ हो
जाता है. चित्त में स्थिरता एवं प्रसन्नता बनी रहती है. उसका ह्रदय या मन विकारों
में लिप्त नहीं होता. उसमे राज और तम गुण का अभाव हो जाता है तथा एकमात्र शुद्ध
सात्विक भाव विद्द्य्मान रहता है. त्वचा पर संयम करने पर
शीत-उष्णता का अनुभव नहीं होता. यही कारण है कि योगी बर्फीले प्रदेशों में भी किसी
प्रकार के कष्ट या कठिनाइयों का अनुभव नहीं करते और आराम से लम्बे समय तक बने
रहतें है, ऐसे में अतिशय गरम क्षेत्रो में भी उन्हें तनिक भी असुविधा महसूस नहीं
होती. आँखों में चित्त को स्थिर करने पर साधक में दिव्य दृष्टि का विकास होता है.
फिर उसके समक्ष सब कुछ ‘हस्तकमलवत भासने लगता है. कोई व्यक्ति अथवा काल उसके आगे
और आवृत्त नहीं रह पाता. वह त्रिकालज्ञ बन जाता है.
इसी प्रकार कर्णेन्द्रियों पर धारणा सिद्ध होने से वहां
दिव्य श्रवण शक्ति का प्रदुर्भाव होता है. सामान्यतः मानवीय कर्ण निश्चित सीमा
वाली स्थूल ध्वनियों को ही सुनने का सामर्थ्य रखते हैं. उस सीमा से आगे और पीछे की
स्थूल तरंगे भी उसकी ग्रहण क्षमता से परे होती है. ऐसे में जब साधक उसमे संयम
साधता है, तो न सिर्फ सम्पूर्ण स्थूल ध्वनियाँ कर्णगोचर बनती हैं, वरन अंतरिक्ष
में प्रवाहित होने वाले कितने ही प्रकार के दिव्य नाद एवं दिव्य सन्देश श्रव्य बन
कर प्रकट होने लगते हैं. मूर्धा में जब चित्त की एकाग्रता सधती है, तो वहां
पर दिव्य वाक् शक्ति का अविर्भाव होता है. यह वाक् वाणी का परिष्कृत रूप है.
साधारण वाणी की क्षमता सांसारिक कार्यों तक ही सीमित होती है. उससे आदेश-निर्देश
के सामान्य क्रियाकलापों के अतिरिक्त और कुछ नहीं सधता. कई बार तो सामने वाला उसकी
आज्ञा की उपेक्षा तक कर जाता है और वह विवश अपनी असमर्थता को कोसती रह जाती है,
किन्तु जब वहां संयम से वाक् शक्ति का प्रकटीकरण होता है, तो उसमे असाधारण बल आ
जाता है; दूसरों को प्रभावित करने की क्षमता से वह संपन्न बन जाता है. फिर सामने
वाला उसके आदेशों की उपेक्षा नहीं कर पाता और कठपुतली की तरह उसे मानने एवं पूरा
करने के लिए बाध्य हो जाता है. इसके साथ ही उसमे श्राप और वरदान देने की दिव्य
शक्ति आ जाती है. इसी प्रकार दिव्य चेष्टा, दिव्य बल, दिव्य गति, दिव्य क्रिया,
दिव्य प्रवृत्ति जैसी कितनी ही विभूतियों का विकास भिन्न-भिन्न देह केंद्रों पर
धारणा साधने से होता है. योगतत्वोंपनिषद (१०३-१०४) में पांच प्रकार की धारणा का फल
बतलाते हुए कहा गया है कि पञ्चविध धारणा की सिद्धि से योगी दृढ़ शरीर वाला एवं
मृत्युंजयी हो जाता है.
धारणा अष्टांग योग का छठा पाद है. उसकी सिद्धि विभिन्न
प्रकार की शारीरिक, मानसिक एवं अलौकिक उपलब्धियों का कारण बनती हैं. जो साधक इनके
आकर्षणों में उलझ जाते हैं, वे चरम लक्ष्य के अपने वास्तविक प्रयोजन को भूल कर
दिग्भ्रमित हो जाते हैं. यही कारण है कि इस पथ के विवेकवान पथिक सदैव इस स्थिति से
बचते और एकनिष्ट भाव से अपनी मंजिल की ओर बढ़ते चलते हैं.
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