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व्यक्तित्व निर्माण
नीर-क्षीर विवेक की अनिवार्यता

जड़-चेतन के मिलन से बने इस विश्व में गुण और दोष दोनों ही है. कहीं देवत्व है कही असुरता, देवत्व को पोषण, अभिवर्धन व सम्मान किया जाना चाहिए, साथ ही असुरता की दूरभिसंधियों कुटील नीतियों से तथा होने वाले आक्रमणों से अपना बचाव भी करना चाहिए.
देवत्व से भरे-पूरे सज्जन पुरुष अपने आदर्श और व्यवहार पर स्थिर रहतें हैं. सज्जनता की रीति-नीति से कभी विलग नहीं होते. उनमे पारस्परिक टकराहट भी नहीं होती. यदि कोई स्वयं उनसे टकरा भी जाये, तो टूटते नहीं. अपनी दिव्य सत्ता को अक्षुण्ण रखते हैं. किसी भी अनात्म तत्व के समक्ष उनका आत्मसमर्पण नहीं होता.
आसुरी प्रवृत्ति से ग्रसित दुर्जनों की रीति इनसे बिलकुल विरोधी स्थिति की होती है. ये सदा ही दूसरों से टकराने के लिए उतावले रहतें हैं. इस टकराहट में दूसरों को कोई हानि भले ही न हो, पर टकराते-टकराते स्वयं तो नष्ट हो ही जाते हैं. यह देवत्व और असुरत्व मात्र मनुष्यों ही तक सीमित हो, ऐसा नहीं है. विश्व-ब्रह्माण्ड के कण-कण में वह व्याप्त है. दैविगुण प्रधान सज्जन पुरुषों की तरह ही परमाणु की मूल सत्ता होती है. यह अपनी विशेषताओं को नष्ट नहीं होने देती.
ये परमाणु स्रजन के कार्यों में जुड़े रहते हैं. वे एकत्रित होते, जुढते और हिल-मिल कर रहते हैं. उनकी संगठन और स्रजन की भावना ही विभिन्न पदार्थों का निर्माण करतीं हाँ. नीव के पत्थरों की तरह आद्र्श्य और अविदित रहकर वे स्रजन के कार्यों में अथक रूप से जुटें हैं. इस समूचे विश्व में जो कुछ भी सौन्दर्य, सुषमा गोचर होती है, वह इन्ही छोटे-छोटे परमाणुओं के पारमार्थिक क्रिया-कलापों का सुखद परिणाम है.
ये नन्हे-नन्हे परमाणु एकाकी नहीं है. इनके भीतर और भी छोटा परिवार है. उसमे अच्छे-बुरे दोनों  तत्वों का निर्वाह होता है. इसमें निहित इलेक्ट्रोन-प्रोटान में पृथकतावादी नीति नहीं होती. इनकी परस्पर टक्कर, टकराहट नहीं होती. इसे तो आपस में गले मिलने , अभिन्नता स्थापित करने की संज्ञा समझी जा सकती है. इसके परिणाम स्वरूप वे परस्पर मिलकर अंतःक्रिया द्वारा नवीन क्रिया में परिवर्तित हो जाते हैं. परमाणु विद्द्या विशारदों ने इस परिवार के अब तक लगभग बीस सदस्य खोजें हैं. इलेक्ट्रोन, प्रोटान के अतिरिक्त न्यूट्रान, पॉज़िट्रान, मेसान, न्यू मेसान, के मेसान, हाइपरान, ड्यूट्रान, न्युट्रिनो जैसे इन कणों से सारा विश्व विनार्मित हुआ है. इन्हें विश्वभवन की ईटें कहा जा सकता है.

इस दैवी परमाणु चेतना में एक विरोधी असुर तत्व भी मौजूद है. समय-समय पर यही गिरगिट की तरह नाना प्रकार के रंग बदलता है. टूटता-फूटता है और विग्रह-विद्वेष उत्पन्न करता है. कुचक्रों का यही शिकार होता है और अंततः विनाश-दुर्गति भी इसी की होती है. इस संसार में मात्र देवत्व ही नहीं, असुरत्व भी है. संभवतः इसी का परिचय देने के लिए यह प्रतिकण मौजूद है.
परमाणु के प्रत्येक मूलकण के साथ एक प्रतिकण मौजूद रहता है. जैसे इलेक्ट्रोन का प्रतीकण पॉज़िट्रान, प्रोटान का एंटीप्रोटान, न्यूट्रान का एंटीन्यूट्रान, न्युट्रीनो का एंटीन्यूट्रीनों. ये सभी प्रतिकण अल्पजीवी होतें हैं. ये जब अपने समान सामान्य कण से टकराते हैं, तो दोनों एक-दुसरे से भिढ़ जाते हैं और भयंकर विस्फोट उत्पन्न होता है और भयानक उर्जा फैलती है.
ये विरोधी कण आते कहाँ से हैं ? क्यों अवरोध उत्पन्न करतें हैं ? कुछ समझ में नहीं आता. विज्ञान वेत्ताओं का अनुमान है कि इस ब्रह्मांड में शायद कोई अन्य विश्व ऐसा है जिसे सर्वथा विपरीत प्रतिविश्व कहा जा सके. इसकी संरचना इस विपरीत पृक्रति के प्रतिकणों से हुई होगी. वहां सबकुछ यहाँ से उल्टा ही होगा. इस लोक में सारा पदार्थ एंटीमैटर होगा, वहां के नाभिक एंटीप्रोटान और एंटीन्यूट्रान का बना होगा. उन प्रतिनाभिकों के इर्द-गिर्द इलेक्ट्रोन के स्थान पर पॉज़िट्रान भ्रमण करते हैं. वही से प्रतिकणों का प्रवाह धरती पर आता है और यह कि अणु रचना के साथ उसका समिश्रण यह परस्पर विरोधी स्थिति उत्पन्न करता रहेगा. यह प्रतिविश्व कहाँ है ?  यह तो अभी तक नहीं दूंढा जा सका है पर उसका अस्तित्व एक प्रकार से मान लिया गया है.
इस तरह स्पष्ट हो जाता है कि कण-कण में परस्पर विरोधी तत्व मौजूद है. कुछ गुणमय हैं तो कुछ दोषमय. गोस्वामी तुलसीदास ने इसी को ‘जड़ चेतन गुनदोषमय, विस्व कीन्ह करतार. संत हँस गुन गहहीं पय परिहरी बारि बिकार” – इस गुणदोषमय विश्व में किसे स्वीकारे, किसे छोड़े ? कौन उपयोगी है कौन निरूपयोगी ? इसका निर्धारण बाह्य कलेवर, उसकी चमक-दमक से होना असंभव है. इसके लिए नीर-क्षीर को पृथक करने में समर्थ विवेक की आवश्यकता है.
यह विवेक परमात्मा ने मनुष्य को विरासत में सौंपा है. जिसके द्वारा वह अपनी विकास यात्रा सुगमता से पूरी कर सकता है. इसका अंजन लगाने से वह दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है, जिससे यात्रापथ के अवरोध नजर आते हैं. संभव है कि अवरोध आकार-प्रकार की दृष्टि से लुभावने दिखें, पर यथार्थ में होतें अवरोध ही हैं. इनसे बचना ही उत्तम है, अन्यथा मंजिल प सकना दुष्कर ही नहीं असंभव भी होगा. इनको त्याज्य मान कर त्याग करने में ही कल्याण है.
परमात्मा ने गुण-दोषमय विश्व की इस प्रकार की अदभुत संरचना संभवतः मनुष्य के विवेक परीक्षण के लिए ही की है. सामान्यतः देखा यही जाता है कि हम इस परीक्षा में अनुत्तीर्ण घोषित हो जाते हैं. कारण कि विवेक की जगह चालाकी, धूर्तता अपनाने लग जाते हैं. परिणाम स्वरूप गुण-दोषों का विवेचन तो बन नहीं पाता, हमारी स्थिति दुर्योधन की तरह बन पड़ती है, जो युधिष्ठर की राज्यसभा में जल के स्थान पर थल, और थल के स्थान पर जल के विभ्रम में आकार जगह-जगह ठोकर खाता और गिरता फिरा. उसकी काग हँसाई भी खूब हुई. इसमें उसने अपनी गलती तो स्वीकार नहीं की, उलटे तथ्य समझाने पर महाभारत रचा डाला.
इसी तरह हम भी संसार की चका-चौंध के सम्मोहन जल में फंस कर, गुण-दोषों का विभेद करने में समर्थ नहीं हो पाते. इसी तरह लगातार दोषों को इकट्ठा करते रहने के कारण व्यक्तित्व भी असुरता से भरने लगता है. परिणाम यही होता है संसार हमारे ऊपर हँसता है. यदि कोई इस औचित्य और अनौचित्य  का भेद समझाने आता है तो उसकी विवेकयुक्त बातों को सम्मोहित-विभ्रमित बुद्धि स्वीकारती नहीं है, उलटे क्रोधित हो, लड़ाई-झगडा करने हेतु प्रेरित करती है.
जहाँ प्रगति के सोपानों पर चढ़ते हुए उत्कर्ष की चोटी पर जा पहुंचना चाहिए था, वहीँ अपने स्थान से भी लुढ़कते हुए अवगति के गर्त में गिरते जाते हैं.
ऐसी स्थिति आने ही क्यों दें ? परमात्मा की ही अमूल्य मणि विवेक के प्रकाश् का प्रयोग कर बाह्य जगत की यथार्थता ही नहीं, अपने अंतराल की यथार्थता को पहचाने. संसार में जहाँ भी प्रगति की लिए उपयोगी और आवश्यक है, उसी को ग्रहण करें. संत कबीर के शब्दों में ‘सार सार की गहि रहे थोथा देहि उडाव की नीति अपनाने में ही कल्याण है.
बुद्धि को विवेकयुक्त बनाये, तभी नीतिकार की उक्ति, यत सारभूतं तदुपासित्वयं, हंसो यथा क्षीरमिवांबुमिक्षमं का भली-भांति पालन कर सकना संभव बन पड़ेगा. ऐसा बन पड़ने से असुर-सत्तासंपन्न दुनिया, जो बाहर भी है और भीतर भी, की साडी कोशिशें नाकामयाब हो जाएँगी. फिर तो दोषपूर्ण असुरता स्पर्श भी न कर पाएंगी. प्रगति का पथ प्रशस्त हो जायेगा. यात्रा सुगम और सहज बन पड़ेगी. इस सुगमता और सहजता के लिए हर किसी को विवेक का इस्तेमाल करने की हँस जैसी रीति-नीति अपनानी चाहिए. इसी में कुशलता और सार्थकता है.
  
   





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