(अंतर्जगत
की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान)
स्मृति और
संस्कार का समान है स्वरूप
अंतर्यात्रा विज्ञान में कर्म के सिद्धांत का व्यावहारिक
एवं वैज्ञानिक विवेचन है. इसके प्रयोग न केवल इसे प्रकट करते है, बल्कि इसको
परिमार्जित भी करते हैं. जो कर्म किया जाता है, उसकी तीब्रता, उससे जुड़े भावों व
विचारों की तीव्रता के अनुरूप होते हैं. भाव व विचार से सम्बन्ध न होने पर कोई भी
कर्म मात्र क्रिया बन कर रह जाता है. ऐसी स्थिति में उसका फल, मात्र तात्कालिक
होता है, दीर्घकालिक नहीं हो पाता.
भाव व विचार की सकारात्मकता एवं नकारात्मकता से जुड़ कर
कोई भी क्रिया, शुभ अथवा अशुभ कर्मों में परिवर्तित हो जाती है. सकारात्मक
भाव एवं विचार राग बनते हैं तथा नकारात्मक भाव एवं विचार द्वेष को जन्म देते हैं. राग व
द्वेष की यही प्रक्रिया हलकी एवं गाढ़ी होने के अनुरूप, स्मृति व संस्कार का रूप ले
लेते हैं. इनके उभरने व उदय होने से हमारे जीवन की धरा व दिशा में मोड़ आते हैं और
इनसे जुड़े कर्म इनके साथ अपने फलभोग को प्रकट करते हैं.
पछली कड़ियों में कर्म-सिद्धांत से जुड़े इस विचार को प्रकट
किया गया था. इसमें कहा गया था की सामान्य जनों के द्वारा किये जाने वाले तीन
प्रकार के कर्म (१)पूण्य कर्म (२)पापकर्म (३) पूण्य-पाप के मिश्रित कर्म के रूप
होते हैं. इनकी तीव्रता के अनुरूप इनका परिपाक होता है. तब ये प्रारब्ध कर्म के
रूप में प्रकट होकर अपने फलभोग को प्रकट करने की स्थिति में होते हैं.
इनमे से पूण्य कर्मों का फल, शुभ घटनाक्रम के रूप में
होता है. इनके फलभोग के प्रकट होने के समय आंतरिक जीवन में शुभ वृत्तियों का उदय
एवं बाह्य जीवन में शुभ संयोगों व शुभ घटनाओं प्रकट होने के अवसर बन पड़ते हैं.
पापकर्मों के फल भोग के समय स्थितियां इसके विपरीत होती हैं, जब्जी पूण्य-पाप
मिश्रित कर्मों के फल के रूप में आतंरिक जीवन में वृत्तियाँ व बाह्य जीवन में
घटनाएँ, शुभ व अशुभ के मिले-जुले रूप में होती है.
अब अनके अगले क्रम के सत्य को महर्षि अपने आगे के सूत्र
में प्रकट करते हैं.
भावार्थ:- जाति, देश व काल – इन तीनों का व्यवधान रहने पर
भी, कर्म के संस्कारों में व्यवधान नहीं होता ; क्योंकि स्मृति और संस्कार, दोनों
का एक ही रूप होता है.
इस सूत्र में कर्मफलभोग के प्रकट होने का सत्य स्पष्ट
होता है. इस संबध में कई बिंदु स्पष्ट हुए हैं. इनमे से पहला बिंदु है (१)
जाति-देश-क्स्स्ल के सन्दर्भ में. इनमे जाति का सम्बन्ध जन्म से है. देश का
सम्बन्ध स्थान से है और काल का संबंद समय से है. हममें से हर कोई, जो भी कर्म करता
है – उसमे ये तीनों ही किसी न किसी रूप से सम्बंधित होते हैं.
हममे से वर्तमान जीवन से पहले भी अंनेकों जन्म हो चुके
हैं. इन पहिले के सभी जन्मों में हमने किसी न किसी स्थान पर किसी न किसी समय में
कुछ न कुछ कर्म किये हैं. फिर भले ही ये शुभ रहें हो या अशुभ अथवा दोनों का मिला –जुला
रोप्प रहें हो. इन कर्मों के साथ अच्छे या बुरे भाव भी जुड़े रहे हैं, जिनका संग्रह
चित्तभूमि में सुखद या दुखद स्मृतियों व संस्कारों के रूप में हुआ है. ये स्मृति व
संस्कार, इस सूत्र का दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु है. हमारे साथ जब कोई अच्छी या बुरी
घटना होती है अथवा हम किसी अच्छी या बुरी अनुभूति से गुजरते हैं तो उसका संचय,
स्मृति के रूप में होता है. वे स्मृतियाँ गाढ़ी व गहरी होने पर संस्कारों के रूप
में संचित हो जाती हैं. इसीलिए सूत्रकार ऋषि कहते हैं कि स्मृति व संस्कारों में
तात्त्विक रूप से कोई भिन्नता नहीं है. इनमे गहरी एकरूपता है. जब हमारी चित्तभूमि
में कोई संस्कार उदय होता है तो ऐसे में उससे जुडा कर्मफलभोग भी उदय हो जाता है.
इसमें जाती-देश व काल का व्यवधान नहीं होता.
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