Skip to main content
चक्र-उप्तिय्काओं का रहस्यमय लीलाजगत अपने ही भीतर
(भाग ...२)


योगी और विज्ञानी दोनों ही इस बात पर एकमत हैं कि साधारण मनुष्यों का अधिकांश समय जीवन-निर्वाह सम्बन्धी तुच्छ कार्यों तथा मौज-मस्ती में ही व्यतीत होता है. बहुत थोड़े से लोग ही यह समझ पाते हैं कि जीवन में करने और पाने के लिए और भी बहुत कुछ है. इसका कारण दोनों यही बताते हैं कि वे उन केंद्रों से ऊँचा ही नहीं उठ पाते, जो जीवन की एकदम सामान्य गति-विधियों के लिए जिमेदार होते हैं.

मानवी मस्तिष्क के स्तनपायी भाग (मैमेलियन ब्रेन) का नियंत्रण लिम्बिक संसथान के जिम्मे होता है. यहाँ से भावना, स्मरण शक्ति, विनोदप्रियता, आनंद, आश्चर्य, कल्पना, प्रेम जैसे तत्वों का नियंत्रण होता है. मक्लीन के अनुसार मस्तिष्क का यह भाग यदि क्षतिग्रस्त हो जाये, तो इससे मातृसुलभ व्यवहार में कमी एवं खेल आदि में अरुचि हो जाती है.

यतियों के अनुसार क्रोध, भय, चिंता, क्षुधा, इच्छा, दया, करुणा, उत्फुल्लता, अपराध जैसे गुण मणिपूरित तथा अनाहत चक्रों की विशेषताएं हैं. तंत्रिकाशास्त्री इसका सम्बन्ध लिम्बिक संस्थान से जोड़ते हैं. इससे स्पष्ट है – इन चक्रों का प्रतिनिधित्व मस्तिष्क का उक्त केंद्र करता है. यदि इन विशिष्टताओं के मेरुरज्जु केंद्र अथवा मस्तिष्कीय केंद्र को उत्तेजित किया जा सके, तो इससे सम्बंधित विभिन्न शारीरिक, मानसिक एवं व्यवहारिक स्तर प्रभावित होंगे. इससे भी चक्रों की वास्तविकता सिद्ध होती है.

मस्तिष्क का तीसरा और अंतिम पक्ष नियोकारटिक्स है. यह सर्वाधिक विकसित भाग है. इसका सम्बन्ध मानवी बौद्धिकता तथा ज्ञान से है. उसके कार्यों के बारे में विज्ञानवेत्ताओं का कहना है कि विचार, गणित, विश्लेषण, विवेक, सहज ज्ञान, रचनात्मकता, योजना, अनुमान, कला, वैज्ञानिक शोध एवं इसी प्रकार के दुसरे उच्च तथा विकसित मानवीय क्षमताओं के उपयोग का सम्बन्ध इसी मस्तिष्कीय खंड से है.

शोध अध्यनों से यह ज्ञात हुआ है कि मस्तिष्क के सामने का हिस्सा यदि क्षतिग्रस्त हो जाये, तो व्यक्ति भविष्य की योजनायें बनाने में अक्षम हो जाता है तथा उसमे स्वयं के प्रति सजगता भी बनी नहीं रह पाती. वे किसी कार्य एवं क्रिया के परिणाम के बारे में नहीं सोच पाते. ऐसे व्यक्ति जड़बुद्धि प्रकृति के, लापरवाह होते हैं. उनमे कल्पना-शक्ति क्षीण हो जाती है तथा जीवन के प्रति नीरस निरानंद बन जाते हैं.

डेविड लोये ने अपने शोधपूर्ण निबंध “फोरसाइट सागा” (ओमनी सितम्बर १९८२) में लिखते हैं कि मस्तिष्क के सामने वाला हिस्सा न सिर्फ पूर्वानुमान से सम्बंधित है वरन उसमे दूरदृष्टि की क्षमता भी मौजूद है. एक उदाहरण देकर इसे और भी स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि मान लिया जाये कि सामने से कोई द्रुतगति से गाड़ी आ रही है. ऐसी स्थिति में मस्तिष्क के सामने का हिस्सा दायें-बांये दोनों गोलार्धों को सावधान करता है एवं उससे इस विषय पर उपलब्ध समस्त जानकारी, सहमति अथवा असहमति की मांग करता है. इसके बाद ही व्यक्ति कोई अनुमान, निर्णय या निष्कर्ष निकाल सकता है. अपने अध्यन में उनने एक विशेष बात यह देखी कि वैसे व्यक्ति जिनके दोनों गोलार्ध सक्रीय थे, एक गोलार्ध प्रधान व्यक्तियों की तुलना में भविष्य सम्बन्धी घटनाओं का अनुमान लगा सकने में अधिक सक्षम पाया गया. इस निष्कर्ष से साधना विज्ञान के इस कथन की पुष्टि होती है कि उच्चआदर्शवादी जीवन, उत्क्रष्ट क्रिया-कलाप एवं आंतरिक क्षमताओं के विकास के लिए मानवीय प्रकृति के दोनों पक्षों के मध्य संतुलन आवश्यक है.

योगियों ने विवेक, ज्ञान, अनुभूति, रचनात्मकता एवं अभिव्यक्ति सम्बन्धी सम्पूर्ण गति-विधियों के केंद्र आज्ञा एवं विशुद्धि चक्र को माना है. हम जानते है कि साधना-उपचारों का उद्देश्य मस्तिष्क के दोनों गोलार्धों के बीच स्थित पीनियल ग्रंथि या आज्ञा चक्र को उद्दीप्त करना है. साधना विज्ञान के जानकारों के अनुसार आज्ञा चक्र ही सब चक्रों का संचालक और नियंता है. इसी कारण से इसे “गुरु चक्र” के नाम से भी साधना ग्रंथों में यत्र-तत्र अभिहित किया गया है. शरीर विज्ञान के अनुसार लिम्बिक सिस्टम के ऊपर पीनियल ग्रंथि के ठीक सामने थैलमस स्थित है. मस्तिष्क के प्रमुख नियंत्रण केंद्रों में थैलमस एक है. यह हमारी इन्द्रियों एवं मोटर क्रियाशीलता (इडा-पिंगला), ललाट में स्थित कार्टेक्स, जिसमे मस्तिष्क के दायें-बाएं दोनों हिस्से (इडा-पिंगला) शामिल हैं, को नियंत्रित करता है. भावनाओं की अभिव्यक्ति तथा संगठन के लिए उत्तरदायी एवं अन्तःस्त्रावी ग्रंथियों का नियंत्रणकर्ता हाइपोथैलमस एवं गति नियंत्रण में सहयोगी सेरिबेलम का भी नियमन थैलमस द्वारा ही होता है. अर्थात पीनिअल ग्रंथि द्वारा इन्द्रियों, विचारों, भावनाओं एवं क्रियाशीलता में समन्वय स्थापित होता है. कर्मेन्द्रियों के संपर्क में आने वाली वस्तुओं के तापमान, आकार-प्रकार आदि निर्धारित करने एवं पीडा की अनुभूति में भी पीनियल ग्रंथि का महत्वपूर्ण स्थान है. एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि गति-विधियों, विशेषतः मांस-पेशियों एवं जोड़ों का संकुचन-प्रसारण के नियंत्रण में भी इसका उल्लेखनीय योगदान है.

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि पीनिअल या थैलमस हिस्सा ही आज्ञा चक्र के विवरण के अनुरूप है. यही वह स्थान है जहाँ इडा की दोनों वृत्तियाँ –ज्ञानेंद्रीय एवं भावनाएं तथा पिंगला की दोनों वृत्तियाँ कर्मेंद्रीय एवं बुद्धि का संयोग होता है. योगियों द्वारा दी जाने वाली “योग” की परिभाषाओं में एक –इडा और पिंगला का आज्ञाचक्र में मिलन है, जिसके फलस्वरूप स्नायुमंडल में एक विस्फोट होता है. इस विस्फोट के परिणाम स्वरूप दोनों मस्तिष्कीय गोलार्धों एवं लिम्बिक संस्थान के कई परिपथों को बहुत अधिक शक्ति मिलती है. जिससे वे सामान्य स्थिति से कहीं अधिक सक्रिय हो उठते हैं. यह उसी प्रकार है जिस प्रकार हमारे स्नायु संस्थान का सम्बन्ध अचानक किसी उच्च वोल्टेज की विद्दुत धारा से, जिसे योगीजन सुषुम्ना कहतें हैं, हो जाये,

योगियों के अनुसार अंतर्ज्ञान एवं प्रत्यक्ष ज्ञान में भी आज्ञा चक्र का महत्वपूर्ण स्थान है. प्रत्यक्ष ज्ञान एवं इन्द्रीय सक्रियता का नियमन थैलमस हिस्से द्वारा होता है. जिससे जीवन की सूक्ष्मताओं का हमें अनुभव प्राप्त होता है. यदि ऐसा है तो फिर योगपथ के अनुभवियों का यह दावा ठीक ही है कि साधना-अभ्यासों द्वारा इस क्षेत्र की संवेदना और शक्ति को जगा कर मनुष्य की सामान्य क्षमता को बढ़ाकर असामान्य किया जा सकता है. परिणाम यह होगा की हम पदार्थ की सूक्ष्म भूमिका में उतर कर उसका निरीक्षण-परिक्षण कर सकेंगे अर्थात हम भौतिक सीमाओं को तोड़ कर अभौतिक संसार में प्रविष्ट कर सकेंगे.

साधनाशास्त्र के अनुसार मूलाधार चक्र की अवस्थिति पेरिनियम में तथा दुसरे चक्र मेरुदंड में ऊपर की ओर सहस्त्रार तक स्थित है. सहस्त्रार मनुष्य के चरम विकास एवं चेतना की पराकाष्ठा है. आज्ञाचक्र वह केंद्र है जहाँ मनुष्य अपना अस्तित्व ब्रह्मांड से पृथक अनुभव करता है. व्यष्टि एवं समष्टि चेतना का मिलन अथवा विश्वव्यापी चेतना का प्राकट्य स्थल- सहस्त्रार है तथा आज्ञाचक्र वह केंद्र है, जहाँ आदेश ग्रहण किये जाते हैं.

तंत्रिका क्रिया विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया कि मस्तिष्क में मेरुरज्जु शीर्ष से पीनियल ग्रंथि अथवा थैल्मिक क्षेत्र तक ऊपर की ओर फैले हुए हिस्से में योगियों द्वारा बताये हुए चक्रों के विवरणों से मिलते-जुलते केंद्र हैं. यह कहा जा सकता है कि मस्तिष्क के सभी केंद्र आज्ञाचक्र के अधीन है तथा उसी के द्वारा नियंत्रित भी. आज्ञाचक्र के अंतर्गत विकास के भिन्न-भिन्न स्तर है. जैसे-जैसे चक्रों का जागरण होता जाता है, वैसे-ही वैसे चेतना का स्तर तथा आज्ञाचक्र की क्रियाशीलता भी प्रभावित होती है.

इस प्रकार साधना विज्ञान के रहस्य अब उस क्षेत्र में होने वाले शोध-अनुसंधानों से घटते-मिटते जा रहें हैं. कुछ समय पूर्व तक तर्कवादी विज्ञानी मस्तिष्क जिसका ‘भ्रम’ कह कर उपहास उड़ाते थे, आज वे ही साधना विज्ञान में वर्णित चक्रों, उपतिय्काओं, भ्रमरों, प्राणों, मात्रिकाओं की महत्ता, सत्ता और वास्तविकता को समझने लगे हैं. इससे सर्वसाधारण के मस्तिष्क में छाया असमंजस का कुहासा निश्चय ही दूर होगा और यह विश्वास पैदा होगा, जहाँ साधक निर्द्वंद मनःस्थिति के अतिरिक्त और कुछ न हो.      



Comments

Popular posts from this blog

षट चक्र भेदन का चौथा चरण "अनाहत चक्र" साधना.(ह्रदय चक्र)

षटचक्र भेदन का चौथा चरण अनहद चक्र साधना आध्यात्मिक जागरण के साथ भावनात्मक संतुलन भी अ नाहत का शाब्दिक अर्थ है, जो आहात न हुआ हो. यह नाम इसलिए है , क्योंकि इसका सम्बन्ध ह्रदय से है , जो लगातार आजीवन लयबद्ध ढंग से तरंगित और स्पंदित होता रहता है. योग्शाश्त्रों के विवरण के अनुसार अनाहद एक ऐसी अभौतिक एवं अनुभवातीत ध्वनि है , जो निरंतर उसी प्रकार नि:स्रुत होती रहती है, जिस प्रकार ह्रदय जन्म से मृत्यु तक लगातार स्पंदित होता रहता है. योगियों ने अनाहत चक्र को मेरुदंड की आंतरिक दीवारों में वक्ष के केन्द्र के पीछे अनुभव किया है. इसका क्षेत्र ह्रदय है. योग साधकों ने इस चकर को ह्रदयाकाश भी कहा है, जिसका अर्थ है , ह्रदय के बीच वह स्थान , जहाँ पवित्रता निहित है. जीवन की कलात्मकता एवं कोमलता से भी इसका गहरा सम्बन्ध है. अनाहत चक्र की रहस्यमयी शक्तियों का प्रतीकात्मक विवरण योग्शाश्त्र के निर्माताओं का प्रीतिकर विषय रहा है. इस विवरण के अनुसार अनाहत चक्र का रंग बंधूक पुष्प की तरह है जबकि कुछ अनुभवी साधकों ने इसे नीले रंग का देखा है. इसकी बारह पंखुडियां हैं और हर पंखुड़ी पर सिन्दूरी रंग क
(प्रकाश विज्ञान) अभामंडल का ज्ञान-विज्ञान आभामंडल शारीरिक उर्जा का दिव्य विकरण है. यह उर्जा प्राणशक्ति के रूप में शरीर में उफनती-लहराती रहती है. यह जिसमे जितनी मात्रा में होती है, वह उतना ही प्रखर एवं प्राणवान होता है, उसका आभामंडल उतना ही ओजस्वी एवं तेजस्वी होता है. यूँ तो यह उर्जा शरीर के प्रत्येक कोशों से विकरित होती रहती है, परन्तु चेहरे पर यह अत्यधिक घनीभूत होती है. इसलिए प्राणशक्ति से संपन्न अवतारी पुरुष, ऋषि, देवता, संत, सिद्ध, महात्माओं का चेहरा दिव्य तेज से प्रभापूर्ण होता है. उनका आभामंडल सूर्य सा तेजस्वी एवं प्रकाशित होता है. इस तथ्य को आधुनिक विज्ञान भी स्वीकारने लगा है. सिद्ध-महात्माओं के चेहरे का आभामंडल महज एक चित्रकार की तूलिका का काल्पनिक रंग नहीं बल्कि एक यथार्थ है, एक सत्य है. हालाँकि इसे देखने के लिए दिव्य दृष्टि चाहिए एवं अनुभव करने के लिए भावसंपन्न ह्रदय की आवश्यकता है. ऐसा हो तभी इस आभामंडल को देखा, परखा और अनुभव किया जा सकता है. वस्तुतः आभामंडल और कुछ नहीं, प्राणशक्ति एवं उर्जा का व्यापक विकरण है जो जीवनीशक्ति से आप्लावित प्राणी की देह से संश्लिष्ट र
चित्त की चंचलता का रूपांतरण है समाधि अंतर्यात्रा विज्ञान योगसाधकों की अंतर्यात्रा को सहज-सुगम, प्रकाशित व प्रशस्त करता है. इसके प्रयोग प्राम्भ में भले ही प्रभावहीन दिखें, पर परिपक्व होने के बाद परिणाम चमत्कारी सिद्ध होतें हैं. जो निरंतर साधनारत हैं , जिनके तन, मन, प्राण चित्त व चेतना योग में लय प्राप्त कर चुकी है, वे सभी इसके मर्म को भली भांति अनुभव करते हैं. चित्त शुद्धि अथवा चित्त वृत्ति निरोध कहने में भले ही एक शब्द लगे, लेकिन इस अकेले शब्द में योग के सभी चमत्कार, सिद्धियाँ एवं विभूतियाँ समाई हैं. जो साधना पथ पर गतिशील हैं, वे सभी इस सच्चाई से सुपरिचित हैं और इसी वजह से कोई भी विवेकवान, विचारशील, योगसाधक कभी भी किसी चमत्कार या विभूति के पीछे नहीं भागता, बल्कि सदा ही वह स्वयं को पवित्र, प्रखर व परिष्कृत करने में लगा रहता है. पूर्व में भी अंतर्यात्रा के अन्तरंग साधनों की चर्चा हो चुकी है, जिसमे यह कहा गया ये अन्तरंग  साधन अन्तरंग होते हुए भी निर्बीज समाधि की तुलना में बहिरंग हैं. दरअसल योग साधन का बहिरंग या अन्तरंग होना योग साधक की भावदशा एवं चेतना की अवस्था पर निर्भर है.