आद्याशक्ति की साधना एवं
सिद्धियों से साक्षात्कार
गायत्री उपासना की महिमा बखान से शास्त्र भरे पड़े हैं.
इससे भौतिक और आत्मिक सफलताएँ जिस प्रकार साथ-साथ अर्जित की जा सकतीं हैं, वैसा
सुयोग अन्य मन्त्रों के साथ कदाचित ही देखने को मिलता है. यह इसका सर्वाधिक
महत्वपूर्ण पहलू है. इसी के साथ इसमें एक कड़ी यह भी जुड्नी चाहिए कि जितनी
सामर्थ्य महापुरुषों की अहैतुक कृपा को आकर्षित करने की इसमें है, उतनी शायद किसी
अन्य में नहीं.
घटना खिदिरपुर (चिनसुरा), कलकत्ता की है. फनीन्द्र्नाथ
घोष तब वहां सब डिप्टी मैजिस्ट्रेट थे एवं अच्छे गायत्री साधक भी. नित्य प्रति
ब्रह्म मुहूर्त में उपासना करना, फिर कचहरी जाना, वहां से लौटने के उपरांत लोकसेवा
में जुटे रहना- यह उनकी नियमित दिनचर्या थी. पिछले दस वर्षों से अप्रतिहत उनका
उक्त क्रम चला आ रहा था. समय ज्यों-ज्यों गुजरता जा रहा था , वैसे ही वैसे उनमे
इष्ट दर्शन की अभीप्सा भी तीव्रतर होती जा रही थी. एक प्रातः जब वे उपासना की
तैयारी में जुटे थे तो उन्होने अपने पूजा कक्ष की खिड़की से एक छायाकृति को अन्दर आते
देखा. वह छायामूर्ति उनसे करीब छः फुट की दूरी पर आकर सामने खड़ी हो गई. दरवाजा
अन्दर से बंद था और कक्ष की दोनों खिडकियों में लोहे की छडे लगी हुई थी, इसलिए
निकट खडी मानवमूर्ति के स्थूल देहधारी होने की सम्भावना समाप्त हो गई. उनके मन में
विचार उठा कि वह कोई दिव्य देहधारी महापुरुष हैं और निश्चय ही किसी विशेष प्रयोजन
के लिए यहाँ उपस्थित हुए हैं. यह बात मानस में उठते ही छाया पुरुष ने एक स्निग्ध
मुस्कान बिखेर दी, स्वीकृति में सिर हिलाया और कहा “ तुम्हारी उपासना और अकुलाहट
ने मुझे यहाँ आने के लिए विवश कर दिया. शायद न भी आता, पर जहाँ स्वयं आद्यशक्ति
विराजमान हो, वहां मेरा नहीं आना, विश्वमाता के अपमान के समान होगा, इसलिए उपस्थित
होना पड़ा. चलो-चलें” इतना कहकर मुंडित
मस्तक, गौर वर्ण, काषाय वस्त्र धारी महात्मा ने अपना एक हाथ आगे बढाया, किन्तु
फणीन्द्रनाथ ने यह कहते हुए असमंजस दर्शाया कि –“आप तो सूक्ष्म शरीर धारी हैं, इस
प्रकार की दिव्य देह धारण करने की क्षमता मुझमे नहीं है. फिर भला मै आप के साथ
कैसे चल सकता हूँ ? यह प्रश्न सुनकर उन अल्पवयस्क महापुरुष ने अपना बायाँ हाथ आगे
बढाया, उससे उनकी दाहिनी कलाई पकड़ी, कहा “चलो अब कोई समस्या नहीं”. इतना कहते ही
उन्होने देखा कि दोनों के शरीर हवा में तैरते हुए कमरे से बहार निकल गए.
वह दिव्य पुरुष फणीन्द्रनाथ के हाथ थामे बड़ी द्रुत गति से
ऊपर अंतरिक्ष में बढे चले जा रहे थे और साथ-साथ आस-पास के गृह पिंडों का भी परिचय
देते चल रहे थे. काफी ऊंचाई पर पहुँचने पर उन्होने पृथ्वी की ओर इशारा करते हुए
बताया कि जितनी मंथर गति इसकी मालूम पड़ती है, वस्तुतः इतना मंद वेग इसका है नहीं. फणीन्द्रनाथ
ने देखा कि सचमुच पृथ्वी बहुत भीषण वेग से घूम रही है. दोनों और आगे बढे. रस्ते
में पड़ने वाले मंगल गृह की ओर महात्मा ने इंगित किया और उसके लाल रंग एवं गति के
बारे में विस्तार से समझाया.
देवपुरुष एक ऐसे मार्ग से आगे बढ़ रहे थे, जो सूर्य से
काफी फासले से निकल रहा था. उनकी गति और भी क्षिप्र हो गई. अब वे ऐसे वेग से बढ़
रहे थे, जिसकी तुलना किसी भी भौतिक गति से नहीं की जा सकती थी. कुछ दूर इस प्रकार
चलने के बाद प्रकाशपुरुष का स्वर गूंजा, ‘रुको’. दोनों रुके, तो उन योगी ने
अंतरिक्ष के उस विशेष भाग का परिचय देना आरम्भ किया. कहा –“देखो यह वह स्थान है
जहाँ रात-दिन एक जैसी स्थिति बनी रहती है, न प्रकाश है, न अन्धकार ही, कोई शब्द भी
नहीं है. पूर्ण शांति छाई हुई है. इस स्थल पर पहुँच कर फणीन्द्रनाथ को ऐसा आभास
होने लगा, जैसे उनका सूक्ष्म शरीर और अधि हल्का हो गया हो और उन्होने ने कोई अन्य
और भी ज्यादा सूक्ष्म देह धारण कर लिया हो.
कुछ क्षण रुक कर वहां देखने के बाद उनकी यात्रा पुनः आरम्भ
हुई. देवमूर्ति ने कहा –“जितनी दूर हम आये हैं, उससे भी ज्यादा दूर अभी चलना है ,
इसलिए गति को और वेगवान बनाना होगा”. इतना कहकर गति को उनने और अधिक बढ़ा दिया. वे
किस वेग से चलकर कितनी देर अंतरिक्ष की किस गहराई में प्रवेश कर चुके थे, कहना
मुश्किल है. थोडी दूर चलने के उपरांत देववाणी उभरी –“मन को तनिक एकाग्र करो और
सुनो”. चित्त स्थिर होते ही गंभीर ओंकार ध्वनि कानों से टकराने लगी. फणीन्द्रनाथ
को ऐसा प्रतीत हुआ मनो शत-शत मृदंग और झांझे निनादित होकर यह नाद पैदा कर रहे हैं.
नाद कुछ ऊपर उठकर एक बिंदु पर केंद्रीभूत हो रहा है, ऐसा आभास मिल रहा था. जहाँ
दिव्यनाद पंजीभूत हो रहा था, उस बिंदु से एक ज्योति-धरा निस्सृत हो रही थी. बिंदु
को घेरे हुए एक वृत्त था. उसके भीतर शुभ प्रकाश हो रहा था. उसमे किसी प्रकार का
कोई रंग न था. केंद्र से झरने वाली ज्योति कोटि सूर्य की आभा से भी अधिक उज्जवल और
प्रकाशवान थी, किन्तु साथ ही करोणों चंद्रों की ज्योत्स्त्रना से भी अधिक शीतल और
शांति दायक थी. इस प्रकाश धरा का निचला हिस्सा लाल, पीले एवं बैगनी आभा लिए हुए
था.
फणीन्द्रनाथ उस दिव्य ज्योति को निहार और नाद को सुन कर
एक प्रकार से समाधिस्थ हो गए थे, तभी महात्मा की गंभीर वाणी प्रस्फुटित हुई –“यह
जो शब्द सुने पड़ रहा है, वह ब्रह्मांडव्यापी है. अन्यत्र यह अव्यक्त बना हुआ है,
पर प्रयास पूर्वक इसे सुना जा सकता है. सृष्टि का आदि मूल यही है. इसी से इस विश्व
की उत्पत्ति हुई है. इस प्रकार से उत्पन्न जगत के अंतर में यह नाद ही प्राण या
जीवनी शक्ति के रूप में प्रकट होता है. अनंत विश्व के गर्भ में धारण किये यही
प्रसुप्त भुजंग के आकार में रहता है. इस अवस्था में उसका नाद भाव अभिभूत और
प्राणात्मक भाव उन्मुक्त होता है. जब यह विश्व को गर्भ में धारण किये रहता है, तब
इसका नाम पराकुंडली कहते हैं और जब यह नादात्मक रूप में स्फुरित होता है तब इसे
वर्णकुंडली कहते हैं, और जब यह नाद रूप भी डूब कर गहरी सुषुप्ति में अवस्थान करता
है, तो इसे प्राणकुंडली के नाम से पुकारते हैं.
इतना कहकर मार्गदर्शक सत्ता मौन हो गई. फणीन्द्रनाथ अबभी
उस तेज-बिंदु की ओर मुग्ध भाव से देख रहे थे. जब उनसे रहा न गया, तो कह ही डाला –“मेरी
उत्कट इच्छा हो रही है कि उस प्रकाश बिंदु में प्रवेश करूँ और देखूं कि वह क्या और
कैसी अनुभूतियों से युक्त है. आप मुझे छोड़ दीजिये. मै कुछ क्षण अन्दर रहकर फिर वापस
आ जाऊंगा.”
देवविग्रह मुस्कराए, बोले “जितना सरल प्रकट रूप में लग
रहा है, वास्तव में उतना आसान है नहीं. जो शब्द तुम सुन रहे हो वह और कुछ नहीं ‘ब्रह्म’
है- शब्द ब्रह्म और यह जो ज्योति केंद्र है, वही ब्रह्म बिंदु है. उसको घेरे हुए जो
प्रकाश पुंज है वहां सत, रज, तम यह तीनों गुण साम्य की अवस्था में हैं. सृष्टि
वहां नहीं है. वहां से प्रस्फुटित होकर नीचे की ओर जो प्रकाश धारा फ़ैल रही है,
उसके अधोभाग में जो रंगीन आभा दिखाई पड़ती है, वही से सृष्टि-बीज ब्रह्मांड में
विकीर्ण होता है. इस समय तो उस ब्रह्मबिंदु में प्रवेश करने के लिए मचल रहे हो, पर
शायद तुम्हे नहीं मालूम कि यदि वहां प्रविष्ट हो गए तो फिर बाहर न निकल सकोगे,
कारण कि उस व्यूह से बहिर्गमन का रास्ता तुम्हे नहीं ज्ञात है. यदि ऐसा हुआ, तो
पृथ्वी पर जो तुम्हारी स्थूल काया है, उसकी और सूक्ष्म शरीर के बीच का सम्बन्ध सूत्र
भंग हो जायेगा और तुम्हारी स्थूल देह की मृत्यु हो जाएगी. ऐसे में उत्तम यही है कि
तुम कुछ समय और प्रतीक्षा करो. मै दोबारा आऊंगा और तुम्हे साथ लेकर ब्रह्मबिंदु
में प्रवेश करूँगा. तब उससे बाहर आने का मार्ग भी बता दूंगा. आज यहीं तक रहने दो.
इसके पश्चात महात्मा मौन हो गए और अनन्त वेग से फिर पीछे
वापस लौट आये. घर आने पर पुनः आने का आश्वासन देकर महापुरुष अंतर्धान हो गए. थोड़ी
देर के बाद स्थूल शरीर की तन्द्रा भंग हुई, तो फणीन्द्रनाथ पूजा-कक्ष से बाहर आये
तो सामने उनकी भांजी मिल गयी. छूटते ही उसने कहा –“मामा ! लगता है, आज कोई अदभुत
बात हुई है. आपकी दिव्य मुखाकृति और अपार्थिव सुगंध- यह दोनों ही इस बात के प्रमाण
हैं.” बाद में फणीन्द्रनाथ को विदित हुआ कि उनके पूरे शरीर, वस्त्र और
श्वास-प्रश्वास से एक विशिष्ट प्रकार की सुगंधि उत्सर्जित हो रही थी. यह स्थिथि लगभग
एक सप्ताह तक बनी रही, फिर धीरे-धीरे सामान्य हो गई.
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