ऋषियों की
अमूल्य देन : मधुविद्दा
(भाग ---२/२)
प्रकाश वेग से चलने वाले ये कण इलेक्ट्रान से टकराकर उसके
संवेग और उसकी स्तिथि एवं दिशा में अंतर उत्पन्न कर देतें हैं. इस प्रकार जिस
वैज्ञानिक उपकरणों के माध्यम से वैज्ञानिक इलेक्ट्रान की गति एवं स्तिथि की
जानकारी पाना चाहते हैं. वह खुद भी अपनी सूक्ष्मता एवं प्रखरता के कारण इन सूक्ष्म
इलेक्ट्रान कणों को प्रभावित कर देता है और सही-सही अध्यन, परीक्षण-निरीक्षण,
विश्लेषण – असंभव हो जाता है. जबकि मधु-विद्दा के ज्ञाता एवं विवेचक आचार्यों ने
चैतन्य विकरण उर्जाओं की गति एवं दिशा का भी विवेचन किया है. जिससे उनकी वैज्ञानिक
क्षमता के भी अति विकसित होने का पता चलता है.
आदित्य से निकलने वाली विकरण उर्जाओं का यह विश्लेषण इस
प्रकार किया है:- उस आदित्य में पूर्ववर्ती दिशाओं की किरणें इस अंतरिक्ष रूपी
छत्ते के पूर्व दिशावर्ती छिद्र हैं. ऋचाएं ही मधुकर हैं. ऋग्वेद ही पुष्प है, सोम
आदि अमृत जल है. उन ऋकरुपी मधुकरों ने ऋग्वेद को अभितप्त किया. अभितप्त ऋग्वेद से
यश, तेज, इन्द्रीय, वीर्य, एवं अन्न का आद्य रूप ‘रस’ उत्पन्न हुआ. वे सब जा कर
आदित्य के पूर्व भाग में आश्रय पा कर वहीँ उस आदित्य के लाल रूप में प्रतिष्ठित हो
गए.
इसी तरह दुसरे अध्याय में कहा गया है – इस आदित्य की
दक्षिण दिशा की किरण ही इसकी दक्षिणावर्ती मधु नाड़ियाँ हैं. यजु श्रुतियां ही इसकी
मधुकर हैं. यजुर्वेद ही पुष्प है, सोमादि जल हैं आदि.
आगे तीसरे खंड
में आदि कह कर पश्चिमी छिद्र से प्रस्तुत पश्चिम दिशावार्ती किरनें ही पश्चिमी मधु
नाड़ियाँ कहलाती हैं. सम्श्रुतियाँ उनके मधुकर एवं सामवेद पुष्प बतायें गए हैं.
चौथे खंड में उत्तर दिशा की ओर प्रवाहित किरणे उत्तरी मधु
नाड़ियाँ बताई गयी है. अथार्वान्गिरस उसके मधुकर और इतिहास पूर्ण ही पुष्प हैं.
पांचवे खंड में उधर्व रश्मियों का वर्णन है. “इन उधर्व
नाड़ियों के मधुकर गुह्य आदेश ही हैं. और ब्रह्म ही इसका पुष्प है. आदि.
इन प्रतिपादनों के सूक्ष्म आदिभौतिक स्वरूप की पुष्टि तो
आधुनिक भौतिकी के भावी शोध निष्कर्षों पर निर्भर है. यूँ स्थूल भौतिक स्वरूप तो
स्पष्ट ही है. सूर्य चरों ओर किरणे फेकता है. उधर्वकिरणों का रहस्य अभी भौतिकी
नज़रों से ओझल है. पहले खंड में आदित्य के लाल वर्ण का संकेत है, दुसरे खंड में
शुक्ल वर्ण का, तीसरे में कृष्ण और चौथे में अतिकृष्ण का.
सूर्य उगते समय लाल वर्ण का रहता है. थोड़ी देर के बाद
शुक्ल वर्ण का हो जाता है, पीछे जहाँ छाया रहती है अर्थात पृथ्वी के जिस हिस्से
में सूर्य प्रकाश नहीं पहुँच रहा होता है, वहां की दृष्टि से उसका तेज कृष्ण यानि
कि सायंकाल के उपरांत की आभा वाला तथा गहरी रात्रि में व्यतीत होने वाली गहरी
कालिमा, अधिक काली आभा वाला कहा गया है.
आधी दैविक स्वरूप इन पांच विकरण उर्जाओं की चेतना के मूल में सक्रिय पांच देवगण
हैं. वसुगण, रूद्रगण, आदित्यगण, मरूदगण एवं साध्यगण. इनकी पर्याप्त भौतिक उर्जाएँ
क्रमशः रेडिओ विकरण उर्जा, अवरक्त विकरण उर्जा, दृश्य विकरण उर्जा, एक्स विकरण
उर्जा एवं गामा विकरण उर्जा. ये पांच विकरण उर्जायें इन पंच देवगणों के वाहन हैं.
इनके मूल में सक्रिय चेतना प्रवाह ही देवगण हैं.
उपनिषद में विवेचित मधु-विद्दा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण
पक्ष इसका आध्यात्मिक अर्थ है. इसमें सविता के प्रवाह के माध्यम पांच अंतरिक्ष
छिद्रों को बताया गया है. इसी छांदोग्य उपनिषद के तीसरे अध्याय में आगे तेरहवें
खंड में उनका विवेचन है. उन्हें पांच देव ऋषि कहा है और उनसे प्रवाहित पांच प्राण
प्रवाहों – प्राण, अपान, व्यान, समान एवं उदान का उल्लेख स्पष्टतया मिलता है.
प्रकट है कि सर्वयापी चेतना सूर्य सविता जो समष्टि प्राण हैं, उससे प्रवाहित पांच
प्राण धाराएँ ही अन्तरिक्षीय छिद्रों से बहने वाली पांच प्रकार की किरणे हैं. इनमे
से चार प्राण प्रवाहों से क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद पुष्पित
बतलाये गए हैं. यहाँ वेद से तात्पर्य ग्रन्थ रूप में उपलब्ध वैदिक संहिता से नहीं
है. अपितु चेतना में परा एवं पश्यंती वाक् के रूप में स्फुरित ज्ञान प्रेरणाओं से है,
क्योंकि इन्ही पुष्पों से मधुकर रस ग्रहण करतें हैं. ऋचाएं यजु:श्रुतियां, साम
श्रुतियां, अथार्वान्गिरस श्रुतियां मधुकर कही गई हैं. अर्थात वे श्रुतियां मूल
ज्ञान चेतना की वाहक हैं. उनमे वही ज्ञान चेतना प्रकाशित है. मधुकरों का सत्व
पुष्प रस है. श्रुतियों का सत्व वहीँ परावाक् तथा पश्यंती वाक् है. जो समस्त
ज्ञान-विज्ञान का आधार हैं. इस प्रकार मूल ब्राह्मी चेतना ज्ञान विज्ञान,
इतिहास-पुराण आदि विविध ज्ञान रूपों में अभिव्यक्त होती रहती है. ये सभी ज्ञान रूप
सविता की ही किरणे हैं. ऐसा यहाँ स्पष्ट विवेचित है.
उधर्व दिशा में प्रवाहित होने वाली किरणों में उधर्वमुखी
प्राण प्रवाह का वर्णन है. उधर्वगामी चेतना के लिए चरों वेदों का सारभूत बोध ही
महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि यह आप्तकाम स्तिथि है. गीता कहती है :- “सब ओर से
परिपूर्ण देह श्रेष्ठ जलाशय को छोटे-छोटे कुओं-ताल तल्लियों आदि से जितना
लेने-देना होता है उतना ही लेना-देना परम तत्ववित ब्रह्मवेत्ता को समस्त वेदों से
होता है.
सविता साधना के क्रम में विभिन्न दार्शनिक मतों का गंभीर
अनुशीलन, वेदों का अध्यन, स्वध्याय आवश्यक होता है. साधना की उच्चतम स्थिति में
समाधि की अवस्था में जहाँ परम तत्व में एकात्म होता है, उस समय इन ग्रंथों का
प्रत्यक्ष प्रयोजन नहीं रहता. यद्दपि चेतने के उत्कर्ष का आधार उनके स्वाध्याय से
ही विनिर्मित होता है. साधना की प्रक्रिया के निर्देशक ग्रंथों का एवं मार्गदर्शक
सद्गुरु की आवश्यकता तो पग-पग पर पड़ती है. किन्तु सविता संपर्क की प्रत्यानुभूति
के क्षणों में आत्म सत्ता ही वेद और गुरु बन जाती है.
कुंडलिनी साधना के समय सुषुम्ना प्रवाह में जब प्राण
उर्जा प्रविष्ट होकर उधर्वारोहण करती है, तब अति चेतन में वो प्रकाश संव्याप्त हो
जाता है. सूक्ष्म दर्शियों ने उसका ध्वनि प्रतीक ॐ को ही बताया है. उन्हें गुह्य
आदेश कहा गया है. ये आदेश प्रणव रुपी पुष्प से ही प्राप्त होते हैं. आनंद और
उल्लास से भरी जो प्रखर सक्रियता उस समय उत्पन्न होती है, वही केंद्र्वर्ती मधु
है. पूर्ववर्ती चार मधु नाड़ियों से प्रवाहित जो मधु रस साधक को प्राप्त होता है उससे
अन्न आदि रस यानि पौष्टिकता, इन्द्रियों की स्वस्थ सक्रियता, तेजस्विता, वीर्य एवं
यश प्राप्त होता है. ये ही चार प्रकार के मधु रस हैं. किन्तु जो पांचवा मध्यवर्ती
मधु है, वह रसों का भी रस है.
अर्थात, वही रसों का रस है. वेद ही रस हैं, ये (दिव्य अनुभूतियाँ)
उनका भी रस हैं. वेद ही अमृत हैं और ये उनका भी अमृत है.
पंचकोशी साधना की दृष्टि से इस तत्व को यूँ समझना होगा कि
अन्न आदि रस की उत्पत्ति का मतलब है अन्नमय कोश की पुष्टि. जिससे प्रखरता उत्पन्न
होती है, प्राण शक्ति बदती है तथा प्राणमयकोश की इस प्रकार सक्रियता से यश व्रद्धी
होती है. इन्द्रियों का अधिपति मन है, अतः उसकी उत्पत्ति का अर्थ है मनोमयकोश की
सिद्धि. वीर्य की पुष्टि विज्ञानमयकोश की सिद्धि का आधार है. तेज की उत्पत्ति से
अक्षय आनंद उल्लास की उपलब्धि होती है. यही आनंद्मय्कोश की सिद्धि है. ये सिद्धियाँ
सविता की चतुर्मुखी चतुरवर्गी किरणों से संपर्क का परिणाम होती हैं. सविता की
उधर्वगामी किरणे उस अनुभूति का बोध कराती हैं जो अमृतों का भी अमृत है, जिसे योग
की भाषा में निर्बीज समाधि, धर्ममेध समाधि, स्वरूप प्रतिष्ठा, जीवन्मुक्ति आदि के
रूप में कहा है. सविता के मध्यवर्ती मधु का पान इसी स्थिति में होता है. सविता
साधना की सर्वोच्च उपलब्धि, चरम परिणति यही है. वशिष्ठ पद पाने पर यह संभव होता
है.
सविता के उस अमृत का साक्षात्कार करना ही उनका पान है.
यही समष्टि प्राण है, प्राणों का आधार है, जीवनों का जीवन है. अपने अमृत रस से परम
तृप्ति देने वाले यहाँ सविता देवता समष्टि चेतना, परमब्रह्म गायत्री साधकों के
उपास्य व इष्ट हैं.
इति
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