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जब सूक्ष्म देह करने लगती है लोक लोकान्तरों की यात्रा


संत-सत्पुरुष सत्पात्रों की तलाश में फिरते रहतें हैं उपयुक्त पात्र मिल जाने पर वे उसकी सहायता करते हैं और मार्गदर्शन भी. जनसामान्य इनके अनुग्रह से इसलिए वंचित रहते हैं कि कृपा पाने के लिए व्यक्ति में जो योग्यता होनी चाहिए, उसे वो सम्पादित नहीं कर पाते, जितना संपन्न करते हैं, वह उनकी कृपा के लिए पर्याप्त नहीं होता. इस लिए अक्सर यह देखा जाता है कि समर्थों का अनुदान विपन्नों को उपलब्ध नहीं होता. जबकि आतंरिक सम्पन्नता युक्त साधक इसे अनायास ही प्राप्त करते रहते हैं.

घटना की है. कशी में केदार मालाकर नमक एक सोलह वर्षीय बालक बंगालिटोला के अपने मकान में माँ, बहन के साथ रहता था. जिन दिनों की बात है, उन दिनों उसके पिता का देहांत हो चूका था. परिवार में माँ , बहन और भांजा रह गए थे. केदार पास के ही एक स्कूल में पढता था. इन्ही दिनों बालक के साथ अकस्मात एक अदभुत घटनाक्रम जुड़ गया था. वह अपना स्थूल शरीर छोड़ कर घंटो बाहर रहता और फिर स्वतः उसमे प्रवेश कर जाता. जब यह बार-बार का क्रम हो गया, तो एक दिन उसके परिवार वालों ने उससे प्रश्न किया कि आखिर अचानक यह विद्द्या उसमे कहाँ से आ गयी ? उसका कहना था कि वह ऐसी कोई विद्द्या नहीं जनता, जिसे असाधारण कहा जा सके. जो कुछ घटित हो रहा है, उसमे न तो उसकी स्वयं की कोई शक्ति है, न इच्छा ही. यह सब एक देव पुरुष की सहायता से संपन्न होता है. जब वो आकर सामने प्रकट होते हैं , तो सूक्ष्म शरीर देह से स्वतः पृथक हो जाता है, फिर उनका अनुसरण करते हुए वह उसी लोक में चला जाता है जिस लोक के उक्त देवात्मा वासी होते हैं. वहां उसे अलग-अलग स्थलों पर ले जाया जाता है और अगणित प्रकार के ज्ञान-विज्ञान के रहस्यों की जानकारी दी जाती है. कार्य पूरा होने के उपरांत वह पुनः पृथ्वी पर अपनी स्थूल काया में लौट आता है.

केदार प्रायः कहा करता था कि लेजाने वाला देवदूत एक ही है, सो बात नहीं. भिन्न-भिन्न भुवनों के भिन्न-भिन्न देवदूत हैं. जिस भुवन में ले जाया जाना अभीष्ट होता, उसके दूत आते और अपने साथ ले जाते. इसमें उसकी अपनी आकांक्षा कार्य करती , ऐसी बात नहीं थी. या तो दूत अपनी इच्छा से अथवा उक्त लोक के अधिष्ठाता की मर्जी से आते और उसे साथ ले जाते. कहाँ जाना है ? क्या करना है ? इन सब मामलों में केदार परतंत्र था. इसके लिए उसे दूत पर निर्भर रहना पड़ता था. वह जहाँ जाता केदार को उसके साथ चलना पड़ता था, मनो उसकी सूक्ष्म सत्ता दूत के आकर्षण से स्वयमेव खिची चली जाती हो.

शरीर के बहार निकलने ( आउट ऑफ़ बॉडी एक्स्पीरंस OBE) और लोक-लोकान्तरों के भ्रमण करने संबधी इस अद्भुत क्रिया का आरम्भ कब और कैसे हुआ ? इस बारे में कहता है कि एक बार वह दशाश्वमेघ बाज़ार में खरीददारी करने गया हुआ था . रस्ते में उसे अक पेड़ पर उसे एक ज्योतिर्मय सत्ता दिखाई दी. उसे देख कर वह विस्मय विमूढ़ हो गया. सोच कि उसे दुसरे को भी दिखाऊँ. आस-पास देखा कोई था नहीं. इसलिए किसी राहगीर के आने का इंतजार करने लगा. यह विचार मन में जैसे ही आया वह दिव्य शरीरधारी आँखों से ओझल हो गया. इसी क्षण उसके अन्दर कुछ अजोबोगरीब परिवर्तन महसूस हुआ. ऐसा क्यों हो रहा है ? वह समझ नहीं पाया. इसके बाद आवश्यक सामग्री खरीद कर वापस आ गया . घर आने पर उसकी स्थिति और बिगड़ती सी प्रतीत होने लगी. शरीर अस्वभाविक रूप से तपने लगा. असह पीढ़ा भी शुरू हो गयी. परिवार वाले चिंतित हो गए पर दो दिन तक यह दशा रहने के पश्चात उसकी अवस्था में सुधार आने लगा और फिर जल्दी ही उसकी तकलीफ ठीक हो गयी और वह भी ठीक हो गया. उस देवात्मा के सन्दर्भ में यह पृथम अनुभव था. इसके बाद वह सत्ता अक्सर आने लगी. जब आती , तो अब पहले जैसी वेदना अनुभव तो नहीं होता, किन्तु उसकी उपस्थिथि से केदार की सूक्ष्म देह निकल कर उसके साथ चल पड़ने के लिया विवश हो जाती. यह क्रम अंत तक जारी रहा.

शरीर से बहार निकल कर उसे कैसा अनुभव होता है ? इस बारे में उसका कहना था कि देह के बंधन से मुक्त होने पर अचानक उसकी काया और यह दुनिया उसके लिए एक प्रकार से अद्रश्य हो जाते हैं एवं एक शून्य का आभास होने लगता है. मार्गदर्शक सत्ता के आकर्षण से वह किसी शून्य को भेदते हुए अग्रसर होता है. इस क्रम में आगे बढ़ते हुए दोनों एक ऐसे स्थल पर पहुंचे हैं तो भयंकर तरंग्युक्त होता है. यहाँ काया को ऐसा महसूस होता है, जी तीब्र विद्दुतीय झटके लग रहें हो. उसके इसी प्रकृति के साथ केदार ने उस स्थान का नाम “झटिका” रख दिया. इसके आगे इन्द्रियां निष्प्रभावी हो जातीं हैं, फलतः बाद का ज्ञान अग्राह बन जाता है.

लोकांतर यात्रा का प्रायः यही क्रम रहता, जिसके उपरान्त केदार हमेशा नये भुवन में पहुँचता और वहां की नयी जानकारी अर्जित करता, किन्तु इस क्रम में कई बार उसे गंभीर वेदना सहनी पड़ती और यात्रा अधूरी छोड़ कर वापस शरीर में लौटना होता है. ऐसा प्रायः तब होता , जब पृथ्वी पर उसकी चेतनाहीन काया को कोई अशुद्ध शरीर मन से स्पर्श कर देता.

इस प्रकार समय बीतने के साथ-साथ बालक का यह अद्भुत विकास भी उत्तरोत्तर बढ़ता गया. उसकी इस प्रगति को देखकर सूक्ष्म जगत में गति रखने वाले महापुरुष प्रायः यही मंतव्य प्रकट करते कि उस पर उधर्व लोक के किसी देवपुरुष की कृपा हुई है, अन्यथा साधरण बालक के लिए ऐसा कौशल दिखा पाना संभव नहीं था. शरीर से बहार निकलने की प्रक्रिया में क्रमिक विकास होता गे और अंत में तो उसके निज के पुरषार्थ की बिकुल भी आवश्यकता नहीं पड़ती. विकास की मध्यावस्था में तो प्रत्यक्ष दूत की मदद तो जरूरी नहीं होती, किन्तु फिर भी परोक्ष प्रेरणा अपरिहार्य थी. अपने ही बूते शरीर से बहिर्गमन कर किसी भी लोक में अप्रतिहत आने-जाने की अवस्था जब प्राप्त हो गयी, तब लोग इतर्लोक सम्बन्धी उससे तरह-तरह के प्रश्न करने लगे. वह हर एक की जिज्ञासा का समुचित समाधान करता. ऐसे ही एक अवसर पर जब उससे यह कहा गया की इस विश्व से बाहर जा कर इसकी ओर दृष्टिपात करो और यह बताओ कि वह कैसा लग रहा है ? प्रश्नकर्ता इस सवाल के द्वारा बालक की परीक्षा लेना कहते थे और यह निश्चय करना चाहते थे कि क्या सचमुच उसकी गति लोक-लोकांतर तक है ? क्या क्षणमात्र में वह देह से बाहर निकलकर पलक झपकते ही लौट आया और सवाल के सटीक उत्तर यह कह कर दिए कि यह जगत बहार से ऐसा दिखाई देता है, मानों कोई मनुष्य अपने दोनों हाथों को दायें -बांये फैलाते हुए निश्छल खड़ा हो, ठीक वैसा ही जैसे ईसामसीह का क्रास. उपनिषदों में वर्णित वैश्यवानर विद्द्या यही है. जैन आचार्य भी ऐसा ही मत प्रकट करतें हैं. एक अन्य अवसर पर जब महाशून्य से वैकुण्ठ के स्वरूप के बारे में पुछा गया और उसका सही-सही वर्णन करने को कहा, तो पुनः केदार अपनी काया से बाहर निकला और पल भर में तथ्य का पता लगा आया. उसका यह कहना था कि महाशून्य से वैकुण्ठ दक्षिणावर्त शंख जैसा बहार से दिखाई देता है. शास्त्रों के पुरषोत्तम क्षेत्र में एस ही वर्णन मिलता है. इस प्रकार देखा गया है कि वह न सिर्फ कलेवर से बाहर निकल सकता है, वरन तथ्यों का सही-सही पता लगाने में भी समर्थ है.

वह जिन-जिन भुवनों में जाता वहां की वहां की भाषाएँ भी सीख लेता और यदा-कदा उसका प्रयोग स्थूल देह में लौटने के बाद पृथ्वी पर करता देखा जाता. संध्या समय वेदपाठ करना, उसका नियमित क्रम था, किन्तु उसका वेद प्रचलित वेद से कुछ भिन्न था. उसके पाठ में उदात्त, अनुदात्त एवं त्वरित स्वरों का स्पष्ट समावेश होता, पर शब्द उसके बिलकुल भिन्न थे, न तो वे संस्कृत के शब्द होते, न हिंदी के, अपितु उनसे पृथक और एक ही प्रकार के उनके उच्चारण थे. सुननेवालोने ने यह समझा कि देवलोक की यात्रा से कदाचित इसने देवभाषा सीख ली हो और उसी वाणी से वहां का वेदपाठ कर रहा हो. जिज्ञासा-समाधान के लिए जब इस आशय से प्रश्न किया गया, तो अस्चर्य व्यक्त करते हुए उसने कहा लौकिक भाषा की तरह वहां की देववाणी पढ़ या सुन कर नहीं सीखनी पड़ती. सीखने-समझने की प्रक्रिया पृथ्वी से बिल्कुल भिन्न है. जिस भी लोक में धरती का कोई सूक्ष्म शरीरधारी मनुष्य जाता है और वहां के जिस भी देवपुरुष से वार्तालाप करना अभीष्ट होता है, उसके भ्रूमध्य से एक ज्योति निकलकर सामने वाले के भ्रूमध्य को स्पर्श करती है. इतने से ही वह मनुष्य वहां की भाव और भाषा का जानकर हो जाता है. इसके बाद वह न सिर्फ वहां की बोली समझने लग जाता अपितु स्वतंत्र रोप्प से विचार-विनिमय भी कर सकता है. जो कुछ उसे कहना होता है, वह सब वहां की भाषा, शब्द और ध्वनि के हिसाब से प्रकट होने लगता है. पृथ्वी की तरह वहां शब्दों और वाक्यों को स्मरण करके रखने की जरूरत नहीं पड़ती.

विभिन्न लोकों का भ्रमण करना अब केदार का एक प्रकार से नियमित कार्यक्रम बन गया था. वह दिन-रात जब भी इच्छा होती, दिव्य लोकों की यात्रा पर निकल जाता
और इच्छानुसार देवपुरुषों के दर्शन-स्पर्शन कर लौट आता. केदार की यह अलौकिक क्षमता केवल कौतुक-कौतूहल मात्र बन कर रह गयी, सो बात नहीं है. इसके माध्यम से उसने अनेक प्रकार के अलौकिक ज्ञान-विज्ञान के रहस्य प्राप्त किये थे, जिसका समय-समय पर वह उसका प्रयोग-प्रदर्शन भी करता था. एक ऐसे ही अवसर पर कशी की सिद्धि माँ नमक एक सिद्ध स्त्री भी उपस्थित थी. केदार का चमत्कार देख कर उसने कहा “ यह सब ठीक है. ब्रह्मांड घूमना, लोक-लोकान्तरों की सैर करना और वहां उपलब्ध हुए विज्ञान के आधार पर चमत्कार करना – इन्हें अदभुत तो कहा जा सकता है, पर पर्याप्त नहीं. जीवन का चरम लक्ष्य ईश्वर-प्राप्ति है. सद्गति सभी संभव है. यह तब तक शक्य नहीं, जब तक व्यक्तित्व को अन्दर-बाहर से सरल और समान न बना लिया जाये. जीवन का सबसे बडा चमत्कार यही है. इस एक को सम्पादित कर लेने पर शेष ऋद्धि-सिद्धियाँ स्वयमेव हस्गत होती चलीं आती हैं, अस्त्रू जीवन का प्रथम और प्रमुख लक्ष्य आत्म-परिष्कार होना चाहिए, तभी यह स्थिति (सद्गति) उपलब्ध हो पाती है, जिसे साधना का सर्वोपरि चमत्कार एवं संयम का दिव्य उपहार कहा गया है. तुम्हे उसी को लक्ष्य बनाना चाहिए.” 

यह सत्य है कि अंतस के परिमार्जन के बिना बाहरी स्तर का दिव्य सहयोग भी अपर्याप्त होता साबित होता है.इसलिए महापुरुषगण वैसे सत्पात्रों की तलाश में रहते हैं, जिनकी आन्तरिक भूमि उर्वर हो, जिसमे अनुदान का बीजारोपण करने पर अंकुरित होकर पल्लवित और पुष्पित हो सके. अतएव अनुदान पाने के लिए हम सिद्ध पुरुषों की खोज में अपना समय न गंवाये. अपने अन्तः को सुविकसित और सुसंपन्न करे, हमें अपनी अयाचित अनुकम्पा मिलती चलेगी. देने और पाने का आध्यात्मिक आधार यही है. इसी पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए.          




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