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जीवन-मृत्यु

जीवन एवं मृत्यु को श्रम व विश्राम का पर्याय समझा जाता है. इन्हें अशांति व शांति के रूप में परिशाषित किया जाता है. जीवन से थके हुए लोग अपनी थकान से विश्राम पाने के लिए मृत्यु की प्रतीक्षा करते हैं. जेवण में जो अशांत है, उन्हें शांति पाने के लिए मृत्यु की प्रतीक्षा बनी रहती है, लेकिन यह विचार, यह सोच, यह समझ न तो सम्यक है और न ही समुचित. इसमें अपरिपक्वता है, अधूरापन है, अपूर्णता है.

जीवन एवं मृत्यु भिन्न नहीं है. इन्हें विपरीत व विरोधी समझना भूल है. जो है, वह उसकी अति-जाती श्वासों की भांति है. प्रतिपल जीवन प्रवाहमान है, उसी में प्रतिपल मृत्यु घटित हो रही है. जीवन मात्र श्रम नहीं है और मृत्यु मात्र विश्राम नहीं है. इसी तरह जीवन न तो अशांति है और न ही मृत्यु सम्पूर्ण शांति. वस्तुतः जो जीवन में विश्राम में नहीं है, वह मृत्यु में भी शांत नहीं हो सकता. क्या दिवस की अशांति, रात्रि की निद्रा को अशांत नहीं कर देती ? क्या जीवन भर की अशांति की प्रतिध्वनियाँ मृत्यु में पीड़ादायक नहीं बनेंगी ?

मृत्यु तो वैसी ही होगी, जैसा की जीवन है. मृत्यु- जीवन की विरोधी नहीं, बल्कि जीवन की पूर्णता है. जीवन में श्रम का न होना ठीक नहीं है, लेकिन हमें इस श्रम से तनावमुक्त व शांत रहने का प्रयास अवश्य करना चाहिए. जीवन को जो श्रम व कर्म में पूरी तरह बदल देते हैं, वे उससे उसकी चेतना छीन लेते हैं और और जड़-यंत्र बना देते है. लेकिन जब जीवन की परिधि पर श्रम व कर्म एवं केंद्र में विश्राम और अकर्म होते हैं, तभी जीवन में चेतनता एवं परिपूर्णता फलित होती है. बहार कर्म-भीतर अकर्म, बहार श्रम-भीतर विश्राम, बहार गति- भीतर स्थिति. कर्मपूर्ण व्यक्तित्व जब शांत आत्मा से युक्त होता है, तभी पूर्ण मनुष्य का निर्माण होता है. ऐसे व्यक्ति की आत्मचेतना अपनी सार्थक अभिव्यक्ति कर पाती है. ऐसे व्यक्ति का जीवन शांत होता है और उसकी मृत्यु मोक्ष बन जाती है.







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