नाडी
गुच्छकों व उप्तियकाओं का विलक्षण सूक्ष्म संसार
शारीरिक स्वस्थता और अस्वस्थता हाड-मांस की देह में प्रकट
और प्रत्यक्ष होती दिखती है. इतने पर भी तथ्य यह है कि इसका मूल कारण न तो काया
में निहित है, न किसी अन्य स्थूल अवयव में. अध्यात्म विद्द्या के विशेषज्ञ जानते
हैं कि जिस स्थूल शरीर को हम सजाने, संवारने और सुधरने का प्रयत्न करते हैं,
वास्तव में वह पर्याप्त नहीं है. उसे आवश्यक तो कहा जा सकता है, पर सम्पूर्ण नहीं.
उसकी परिपूर्णता स्थूल के मूल में निहित सूक्ष्म के सुधार-परिष्कार में हैं. समग्र
स्वास्थ का यही मूलाधार है,
अध्यात्म विज्ञानियों के अनुसार हमारे समस्त शरीर में
नाड़ियों का एक प्रकार का जाल बिछा हुआ है. यह कन्द के स्थान से निकल कर पूरी काया
में फैली हुई है. इनकी संख्या बहत्तर हजार बताई गयी हैं. योगियों
का कहना है कि स्वास्थ्य की वास्तिविक कुंजी यही है. उपचार इन्ही का होना चाहिए.
जो रोग की जड़ में जीवाणुओ व विषाणुओं को कारण भूत मानते हैं, विशेषज्ञों के अनुसार
वे भूल करते हैं. इसका आधारभूत कारण नाडी सम्बन्धी विकृति में अन्तर्हित है. इस
विकृति के फलस्वरूप शरीर में व्याप्त प्राण जर्जर हो जाता है जिसके कारण काया में
रोगाणु यत्र-तत्र अपना अड्डा बना लेते हैं और पलते-बढ़ते रहते है. इनका उपचार तो
होना चाहिए, पर वास्तविक निमित्ति की यदि उपेक्षा की गयी, तो उक्त उपाय बहुत कारगर
सिद्ध हो सकेगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता. इससे अस्थायी लाभ तो मिल सकता है पर
सम्पूर्ण नहीं और इलाज रुकते ही लक्षण पुनः प्रकट होने लगते हैं. इस लिए वे इन
सूक्ष्म मर्मस्थलों के संशोधन की बात बार-बार कहते पाये जाते हैं.
साधना विज्ञानियों का कहना है कि नाडी-जाल देह में “नाडी
गुच्छकों” के रूप में फैला होता है. इन्हें अध्यात्म की भाषा में “उपत्यिका” कहते
हैं. इनकी कई जातियां हैं. कई स्थानों पर ज्ञान तंतुओं जैसी बहुत पतली नाडीयां आपस
में चिपकी रहती हैं. कई बार ये रस्सी की तरह आपस में लिपटी और बंटी रहती हैं. कई
स्थानों पर गुच्छक गांठ की तरह ठोस गोलि जैसे बन जाते हैं. कितनी ही बार ये सांप
की तरह सामानांतर लहराते हुए चलते हैं. अनेक जगहों पर इनसे बरगद की भांति
शाखा-प्रशाखाएं निकलती दिखाई पड़ती हैं. कितने ही अवसरों पर अनेक प्रकार के गुच्छक
परस्पर मिलकर एक घेरे का निर्माण कर लेते हैं. इनके रंग और आकार में जाति के हिसाब
से अंतर पाया जाता है. “षडणमय महारत्न” में ग्रंथकार ने लिखा है कि यदि सूक्ष्म
स्तर का गहन अनुसन्धान किया जाये , तो इन सूक्ष्म नाडी गुच्छकों के तापमान, अणु,
परिभ्रमण एवं प्रतिभापुंज में स्फुट अंतर दिखाई पढने लगेगा.
शरीर शास्त्री इन गुच्छकों के कार्य और स्वभाव का कोई
विशेष परिचय अब तक प्राप्त नहीं कर सके हैं, पर अध्यात्म वेत्ताओं का मत है कि उपत्यिकाएँ
शरीर में अन्नमय कोश की बंधन ग्रंथियां हैं. यह अन्नमय कोश वस्तुतः है क्या? इसे
भलीभांति समझ लेना आवश्यक है. इस रहस्य को स्पष्ट करते हुए “मृगेंद्र आगम” में
शास्त्रकार लिखते हैं कि वास्तव में इस रक्त-मांस के कलेवर को अन्नमय कोश समझने की
जो आम धारणा है वह सही नहीं है. यह मांस-माइंड के अन्नमय कोश के अंतर्गत तो है, पर
इसे अन्नमय कोश समझ लेना उचित नहीं है. यदि यही अन्नमय कोश होता, तो मृत्यु के
उपरांत जीवात्मा को स्वर्ग-नरक, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी जैसी सुखद और दुखद
स्तिथियों की अनुभूति नहीं होनी चाहिए, पर मरणोत्तर जीवन में ऐसा होता देखा जाता
है. स्पष्ट है कि अन्नमय कोश शरीर का संचालक, कारण, उत्पादक, उपभोक्ता आदि तो है,
पर उससे पृथक भी है. इस पृथक आपे में जब गड़बड़ी आती है, तो उसकी स्थूल सत्ता भी
लड़खड़ाने लगती और रुग्न बन जाती है. ऐसे शरीर की उपत्यिकाएँ भी रोगग्रस्त बन जाती
हैं. उपत्यिकाएँ अन्नमय कोश से सम्बद्ध हैं. इसलिए इसकी विकृति को जान कर अन्नमय
कोश के विकार को समझा जा सकता है.
उल्लेखनीय है कि पशु-पक्षी इतने बीमार नहीं पड़ते, जितने
कि मनुष्य पड़ते देखे जाते हैं. इसकी गहराई में जाने से एक ही प्रधान कारण दिखाई
देता है – वह है मानव का प्रकृति विरुद्ध आचरण. जीव-जंतु प्रकृति की प्रेरणा से
कार्य करते हैं, प्रकृति के अनुरूप व्यवहार करते हैं, इस लिए यदा-कदा ही बीमार
पड़ते देखे जाते हैं. जबकि मनुष्य के अधिकाँश कार्य प्रकृति के विपरीत होते हैं. इस
विपरीतता से भीतर और बाहर का तारतम्य बिगड़ता है और असंबद्धता पैदा होती है. दोनों
द्त्रों पर संबंद्धता नहीं रहने के कारण तरह-तरह के रोग उपजते और व्यक्ति को अपनी
गिरफ्त में लेते रहते हैं. अन्नमय कोश में असंबद्धता पैदा होने का सबसे प्रमुख
कारण आहार-दोष है. अन्न यदि विकारग्रस्त, प्रकृति के विरुद्ध, अनीति उपार्जित हो
तो इन सबसे नाडीयां और अन्नमय कोश विकृत हो जाते हैं. विकृति विज्ञान का उल्लेख
करते हुए साधना विज्ञान के मूर्धन्य सद्दोजात लिखते हैं कि जिस अन्न से हम अपना
पेट भरते हैं और शरीर रक्त-मांस का निर्माण करता है, वास्तव में वही अन्न हमारे
अन्नमय कोश आयर उपत्यिकाओं को बनाता-बिगड़ता रहता है. उनके अनुसार अन्न के
स्थूल-सूक्ष्म और कारण तीन भाग हैं. स्थूल से रस- रक्त का सृजन होता है, सूक्ष्म
वाला हिस्सा मानव की पृवत्तियों को जन्म देता है, जबकि उसका कारण भाग संकल्प और
संस्कार के लिए जिम्मेदार है. भोजन का यह अंश अच्छा बुरा जैसा होता है वैसे ही
संस्कार हमारे अन्न से सम्बंधित इस कोश में जमने लगते हैं. अच्छे सात्विक भोजन से संस्कार
अच्छे बनते हैं जबकि
कुधान्य से, अखाद्य से उसकी प्रकृति असात्विक हो जाती है. इसीलिए इस तथ्य से परिचित
लोग सदा सात्विक और सुसंस्कारी अन्न पर जोर देते हैं, ताकि स्थूल शरीर में किसी
प्रकार की अपंगता, अस्वस्थता, आलस्य और कुरूपता की वृद्धि न हो.
जी प्रकार देह के तापमान को देखकर शारीरिक
स्वस्थता-अस्वस्थता का पता चल जाता है, उसी प्रकार नाडी-गुच्छकों के गुण-दोषों के आधार पर सूक्ष्म शरीर की स्थिति
ज्ञात हो जाती है. किसी एक जाति के नाडी के दोषों की अधिकता इस बात की प्रतीक है कि
शरीर असंतुलन की ओर बढ़ रहा है, तब उसे संतुलित-नियंत्रित करने की आवश्यकता पड़ती
है. ‘इन्धिका” जाति के नाडी-गुच्छकों की
अधिकता व्यक्ति में चंचलता, अस्थिरता, उद्दिग्नता पैदा करती है. ‘इन्धिका’ प्रधान व्यक्ति बैठकर काम करने के अयोग्य
होता है. जिसमे “दीपिकी” जाति की उपत्यिकाएँ अधिक होती हैं तो उनमे चर्म रोग, फोड़ा-फुंसी, पीला पेशाब,
आँखों में जलन जैसी शिकायते पैदा होने लगतीं हैं. जब “मोचिकाओं” की वृद्धि
होने लगतीं हैं तो दस्त, जुकाम, कफ़ सम्बन्धी समस्याएं बढ़ने लगतीं हैं. “आप्यायिनी” –अधिक निद्रा,
अनुत्साह,आलस्य, भारीपन के लिए जिम्मेदार होतीं हैं. “पूषा” की बढ़ोत्तरी व्यक्ति
को अधि कामुक बनाती है. “कपिला”- दार, दिल
की धड़कन की वृद्धि, आशंका, अस्थिर चिंतता, नपुंसकता जैसे रोग देती हैं. “घूसर्वी
गुच्छक” क्रोध और श्वास-प्रश्वास की तीब्रता को बढाता है. उष्मा
की अधिकता से जाड़े में भी व्यक्ति को गर्मी महसूस होती है. “आमाया” मनुष्य को
जिद्दी और दुराग्रही बनाती है. ऐसे शरीरों में दवा कदाचित ही कभी असर करती है. ऐसे
मानव अपनी इच्छा से ही रोगी-निरोगी बनते देखे जाते हैं. “उद्गीथो” की
अभिवृद्धि व्यक्ति को संतानहीन बना देती हैं. जिसमे इस जाति के गुच्छक ज्यादा
होंगें, वे हर प्रकार से स्वस्थ होते हुए भी सन्तानोंत्पादक के अयोग्य होंगे. “असिता” की जिस
शरीर में अधिकता होती है वह काया अपने ही लिंग की संताने पैदा करने की विशेष
क्षमता रखता है. स्त्री शरीर में वह कन्यायें पैदा करने लगतीं हैं और पुरुष शरीर
में इनकी बाहुलता बालक उत्पन्न करते हैं. “युक्त
हिंसा” दुष्टता, क्रूरता, अनाचार, अत्याचार, जैसे कृत्यों की प्रेरणा
देती है. इनसे संपन्न व्यक्ति जुआरी, व्यभिचारी, लम्पट, ठग, बेईमान होतें हैं.
इन ग्रुन्थियों की न्यूनाधिकता शारीरिक स्थित को मनोकूल
रखने में बाधक होता है. मनुष्य चाहता है कि वह अपनी स्थिति और अवस्था को अमुक
प्रकार की बना कर रखो. इसके लिए वह प्रयत्न भी करता है, पर अनेक बार वह उपाय असफल
होते देखे जाते हैं, ककआरण कि ये उपत्यिकाएँ अन्दर ही अन्दर ऐसी क्रियाएं और
प्रेरणा उत्पन्न करती हैं , जो बाहरी प्रयास को सफल नहीं होने देतीं और मनुष्य
अपने को बार-बार असफल एवं असहाय अनुभव करता है.
उपत्यिकाओं का यह जाल शरीर एवं मन द्वारा किये गए
दुरीतों, दुराचरणसे विकारग्रस्त बनाता है तथा सत्कर्मों से संतुलित और सुव्यवस्थित
होना, दिनचर्या को सही बना कर रखना, प्रकृति के निर्देशों की पालना आवश्यक माना
गया है. इसके अतिरिक्त कुछ योग साधनात्मक उपाय-उपचार भी हैं, जीने अगर नयमित रूप
से करता जाया जा, तो इन नाडीगुच्छकों का शोधन एवं इससे उत्पन्न विकारों पर काबू
पाना सरल एवं संभव हो जाता है. बाहरी उपचार जहाँ इने परिमार्जित करने में एक
प्रकार से निष्फल बने रहतें हैं, वही आध्यात्मिक अवलंबन रामबाण सिद्ध होता है.
उपवास इन्ही में से एक शशक्त उपाय है, जो नाडीयों को संशोधित करने में बहुत कारगर सिद्ध होता है.
इसका एक सुविस्त्रत विज्ञान है. इसी विज्ञान के आधार पर प्राचीन ऋषियों ने मास,
मुहूर्त, फल, को ध्यान में रखते हुए त्योहारों से इसकी ऐसी संगत बिठाई कि उक्त
ऋतु, मास और तिथि में जिस गृह की कल्याणकारी किरणें बरसती हैं, उन्हें उपवास के माध्यम
से आकर्षित-अवशोषित कर अन्तः को सुविकसित बनाया जा सके.
उपवासों के उपरान्त आंतरिक संस्थानों को सही करने के लिए
आसनों की बारी आती है. आसन इतने उपयोगी व्ययाम हैं, जो स्वस्थ की दृष्टि से भी आवश्यक
हैं, और मर्मस्थलों को क्रियाशील बनाने में महत्वपूर्ण साबित होतें हैं. इसके
द्वारा आयुर्वेदाचार्यों के अनुसार, शरीर के भीतर की हव्य्वाहा-कव्य्वाहा नामक
विद्दुत शक्ति संतुलित और सक्रिय बनी रहती है उपत्यिकाएँ भी नियंत्रण में रहती
हैं.
इन सब पर ध्यान दिया और दिनचर्या, आहार, विहार आदि को संयमित
रखा जा सके, नियमित तप-उपवास-आसनों द्वारा भीतरी सूक्ष्म तंत्रों पर जमा होने वाले
कषाय-कल्मषों को बराबर परिमार्जित करते रहने का कोई सुनिश्चित क्रम बन सके तो कोई
कारण नहीं कि हम स्वस्थ-निरोग रह सकें. बाहरी स्वस्थता का आधार अंतर की निरोगता और
सुव्यस्था में निहित है. इस यदि समझा जा सके, तो हर कोई व्याधि रहित जीवन जी सकता
और स्वस्थ-प्रसन्न बना रह सकता है.
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