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ऋद्धि-सिद्धियों का द्वार है, नाभिचक्र-सूर्यचक्र


योग्शास्त्रों ने नाभि को सूर्यचक्र कहा है. यहाँ उसे इतना महत्व दिया गया है जितना वैज्ञानिक परमाणु में न्यूक्लियस को, अथवा सौर-मंडल में सूर्य को देते आये है. हो सकता है कि शरीर शस्त्री इसे पूरी तरह न समझ पाने के कारण उतना महत्व न दे पर आत्म विज्ञानियों के लिए इसका चुम्बकत्व आजीवन बना रहता है. अध्यात्म विद्दा के मर्मज्ञों के अनुसार सबसे पहले मानवीय प्राण नाभि केंद्र में स्पंदित होकर ह्रदय से टकराता है. ह्रदय और फेफड़ों में रक्त शोधन करके सारा शरीर में संचार करने में सहायता करता है.

लेकिन यह तो प्राण की स्वभाविक क्रिया भर है. जब इओसे मानसिक संकल्प एवं अन्तश्चेतना के साथ जोड़ दिया जाता है तो यह अधिक चेतन और ज्यादा सक्षम होकर विशेष शक्ति संपन्न बन जाता है. जिस तरह सामान्य रूप से प्रवाहमान हवा में ज्यादा ताकत नहीं होती, कितु जब उसे किसी गुब्बारे में भर कर छोड़ते हैं तो यह उधर्वगामी बन कर अधिक शक्तिशाली बन जाती है. उसी प्रकार जब मन को शुभ संकल्प युक्त चेतना से भर कर जब प्राण से जोड़ दिया जाता है, तब उसका स्वरूप आध्यात्मिक शक्ति में बदल जाता है.

वैज्ञानिक दृष्टि से भी नाभि प्राण का उद्गम स्थान है. गर्भाशय में भ्रूण का पोषण माता के शरीर से होता है. बुलबुले की तरह अपने जीवन की शुरुआत करने वाला भ्रूण तेजी से बढ़ना आरम्भ करता है. निर्वाह एवं सतत पोषण हेतु उसे जिस भंडार की आवश्यकता है, वह अनुदान शिशु की माता के शरीर द्वारा अपनी नाभि के मुख से मिलता है. प्स्क्स हुस सशस्र म्स्ट्स के रक्त के माध्यम से निरंतर प्राप्त कर अपनी विकास यात्रा आरम्भ करता है. प्रसव के समय जिस नाल रज्जु को काट कर माता व शिशु को अलग किया जाता है, यह नाल ही वह द्वार है जिससे माँ के शरीर से आवश्यक रस द्रव्य बालक के शरीर में आता रहता है. नौ मास की पूरी अवधि में अपनी साडी जरूरतों की पूर्ति वह नाभि मार्ग से ही प्राप्त करता है.

जन्मते ही बालक रोता हाथ पर चलाता है और रक्त संचार आरम्भ हो जाता है. ह्रदय से खून फेफड़ों में जा पहुँचता है और वे अपना काम शुरू कर देते हैं. प्राणवायु को अपने रक्त में वातावरण से खींच कर स्वावलंबन का पहला चरण नवजात शिशु पूरा करता है. अब माता के गर्भ में बैठे ‘प्लेसेंटा’ रुपी फेफड़ों की उसे आवश्यकता नहीं रहती. माँ व बालक के बीच का सम्बन्ध विच्छेद नाल को काट कर किया जाता है. नवजात शिशु की जीवन यात्रा अपने ढर्रे पर चलने लगती है. माता का सहयोग समाप्त होते ही उस केंद्र की उपयोगिता समाप्त हो जाती है. स्थूल दृष्टि से चिकित्सकों की नज़र में इस केंद्र की उपयोगिता एक सामान्य गड्ढे के रूप में ही रह जाती है. कुछ बेकार-निष्क्रीय सूत्रों (लिगामेंट टेरिस) के माध्यम से नाभि लीवर से जुडी रहती है. शरीरगत विकास की दृष्टि से नाभि की भूमिका समाप्त हो जाती है. पर जब कभी भी लीवर पर दबाब पड़ता है तो उसमे रक्त का प्रवाह बढ़ जाता है, तब ये निश्क्र्रे सूत्र जीवंत हो उठते हैं व केपट मेडयूसी के रूप्प में फूली शिराओं के स्वरूप में दिखाई देती हैं.

यह सारी कथा एक ही बात को बताती है कि नाभि चक्र सक्रिय केंद्र है. जो अपनी उपयोगिता के अवधि में अपनी सामर्थ्य से भ्रूण के विकास में सहयोग देती है, बाद में वह निष्क्रिय नहीं हो जाती. जिस तरह सूक्ष्म शरीर का केंद्र आज्ञा चक्र को मन जाता है उसी तरह स्थूल शरीर का न्यूक्लियस नाभि चक्र अथवा सूर्य चक्र है. इस केंद्र का सशक्त होना स्वस्थ शरीर का चिन्ह है. इसी की क्षमता से समीपवर्ती अवयव प्राणवान बनते हैं. नाभि केंद्र के क्रिस्टल में आदान-प्रदान की उभयपक्षीय क्षमता विद्यमान है. वातावरण में व्याप्त ध्वनि तरंगों को ट्रांजिस्टर का क्रिस्टल ही पकड कर उन्हें श्रव्य ध्वनियों का रूप दे देता है.

नाभि केंद्र ब्राह्मी चेतना का न्यूक्लियस है. अनंत अंतरिक्ष से आवश्यक शक्तियों को आकर्षित करना और उन्हें धारण कर शरीर के समस्त अंगों में प्रवाहित करना योग विज्ञान के अनुसार इसी का कार्य है. शरीर विज्ञानी भले ही इसे उपयोगी ना समझे, परन्तु योग विज्ञान की नज़र में इसकी उपयोगिता सारी जिन्दगी यथावत बनी रहती है. इसके चुब्कत्व को साधना प्रणाली द्वारा जगाया जा सके तो अपनी प्रखर आकर्षक क्षमता के सहारे वह इतना कुछ अनुदान उपहार दे  सकने में समर्थ हो सकता है जो स्थूल पदार्थों की तुलना में हजारों गुना अधिक उपयोगी है.     
चिकित्सा शास्त्र की दृष्टि से नाभि के इर्द-गिर्द नौ अति महत्वपूर्ण अन्तःस्त्रावी ग्रंथियां हैं. ये स्वचालित स्नायु संस्थान के वे केंद्र हैं जो शरीरगत गतिविधियाँ, रक्त प्रवाह, पाचन में सहायक एन्जाइम्स व अन्य रसों के स्त्राव का नियमन-संचालन करते हैं. लम्बर, सैक्र्ल एवम काक्सिजियल गैन्गिलिआन व इनके आपस के सूत्रों के रूप में विद्यमान प्लेक्सेज ही अमाशय पाचन संस्थान तिल्ली-गुर्दे-यकृत आदि महत्वपूर्ण अंगों का संचालन करते हैं. नये शरीर का निर्माण करने वाली प्रजनन प्रणाली (गोनेड्स) अपनी अदभुत क्षमताओं सहित इन्ही केंद्र के नियंत्रण में कार्य करती हैं. इन सबकी फलश्रुति के रूप में दिखाई पड़ने वाला हाड-मांस का पुतला यह शरीर अन्नमयकोश की आधीनता में तो है, पर स्वयं कोश नहीं है. दिखाई न पड़ने पर भी अन्नमयकोश में कुछ ऐसे अविज्ञात रहस्य समाये हुए हैं जिनका उद्घाटन सूर्य चक्र के जागरण से ही संभव है.

मनुष्य के प्राण शरीर में तीन नाड़ियाँ मुख्य हैं, जिनके माध्यम से प्राण प्रवाहित होता है. इडा, पिंगला, सुषुम्ना इन्ही के नाम हैं. इडा- पैरासिम्पैथिटिक सिस्टम अर्थात शामक संस्थान की प्रतिनिधित्व करती है. यह मनुष्य का शांत अंतर्मुखी मनोगत पक्ष हुआ. पिंगला –सिम्पैथिटिक सिस्टम अर्थात उत्तेजक संस्थान की प्रतिनधि है. यह जीव का सक्रिय बहिर्मुखी एवं शरीरगत पक्ष है. दोनों के परस्पर सामंजस्य एवं संतुलन से ही सारी गतिविधियाँ क्र्मवद्ध ढंग से चलती हैं. पाचन क्रिया के लिए जिस उर्जा की जरूरत शरीर को होती है वह दोनों नाड़ियों के प्रवाह से बनती है.

नाभि के पीछे स्थित सूर्यचक्र वह केंद्र बिंदु है जहाँ से सारी प्रमुख धाराएँ विभिन्न अंगों को जाती हैं. एक प्रकार से इसे जंक्शन स्टेशन की उपमा दी जा सकती है. जहाँ से अनेकों रेलवे लाइनें विभिन्न दिशाओं में जाती हैं. सरे शरीर की स्फूर्ति इसी केंद्र की सशक्तता पर निर्भर है. सूर्यचक्र न केवल प्राण प्रवाह का जंक्शन है, बल्कि अचेतन मन के संस्कारों तथा चेतना के सम्प्रेषण का केंद्र भी है. किन्तु साधारणतया यह महत्वपूर्ण केंद्र प्रायः सुप्त अवस्था में पड़ा रहता है. अतः इसकी शक्ति का न तो जनसाधारण को कुछ ज्ञान ही होता है और न इससे कुछ लाभ ही उठा पाते हैं.

प्रत्येक चके किसी तत्व विशेष से सम्बंधित व प्रभावित होता है. उसको सक्रिय करने के लिए किसी विशेष रंग का ध्यान करना होता है. जैसे सूर्यचक्र अग्नि तत्व प्रधान है. उसे जाग्रत करने के लिए पीतवर्ण कमल का ध्यान किया जाता है. वास्तव में लाल, पीले, हरे, बैगनी, एवं सफ़ेद रंगों का सूर्य-ज्योति की सात किरणों से सम्बन्ध है. चक्रों में इनके मानसिक ध्यान मात्र से सम्बंधित तत्व में विशेष हलचल होकर हमारे ज्ञान तंतुओं एवं मस्तिष्क को प्रभावित करता हुआ शरीर स्थित व्यष्टि प्राण तथा चेतना से जोड़ देता है. जिस भी व्यक्ति ने इस केंद्र को साध लिया उसकी इन्द्रियां काबू में रहती हैं एवं नियत निर्धारत क्रम से अपनी सुव्यवस्था कौशल का परिचय देती है. इसी सामान्य मनुष्य की तुलना में कई गुने परिमाण में उत्कृष्ट कार्य कर सकने में सफल होतें हैं.

इसको जाग्रत करने के लिए प्रातःकाल सूर्योदय से पहले और सायंकाल सूर्यास्त से पहले साधना करने का विधान है. किसी पवित्र एवं एकांत स्थान में अथवा अपने दैनिक साधना कक्ष में पद्मासन में कमर सीधी स्थिति में बैठ कर दस से बीस बार गहरी-गहरी श्वास ले अथवा तीन से पांच मिनट तक नडी शोधन प्राणायाम करे. इससे प्राण का सुषुम्ना में संचार आरम्भ हो जाता है. इसके पश्चात रीढ़ की हड्डी को बिलकुल सीध रखते हुए अजपा गायत्री (सोऽहं) का श्वास के साथ पांच मिनट तक मौन जाप करना चाहिए. बाद में अपनी नाभि के पीछे मेरुदंड स्थित सूर्य चक्र में पीले चमकीले रंग वाले कमल का मानसिक ध्यान में स्वयं को तन्मय कर देना चाहिए.

इस तन्मयता में यह भाव गहराई से समाहित रहे कि सूर्य चक्र जाग्रत हो रहा है. पीतवर्ण कमल से निकलती रश्मियाँ सरे नाभि संस्थान को प्रभावित कर रही हैं. इस बह्वना की गहराई में स्वयं को खोते हुए अपनी श्वास को धीरे-धीरे ह्रदय में  फेफड़ों में ले जाते हुए पेट में भर दें. इस प्रक्रिया के साथ यह भावना गहरी हो कि “ मै आरोग्यता, सुख-शांति, सफलता एवं सिद्धि के परमाणुओं को समष्टि प्रकृति के भंडार से अपने भीतर आकर्षित कर रहा हूँ तथा सूर्य चक्र में उनका संचय एवं संग्रह हो रहा है. दस पांच मिनट श्वास को सूर्य चक्र में ठहराने के पश्चात यह भाव गहरा करें कि “मेरा प्राण उधर्वगामी होकर शरीर के समस्त अंगों प्रत्यंगों में व्याप्त हो गया है और उसका प्रकाश पहुँच रहा है.

इस ऑटो सजेशन के साथ श्वास को बिलकुल धीरे-धीरे बाहर छोड़ दें और सूर्यचक्र से प्राण का स्पंदन मेरुदंड में ऊपर की ओर गति करता अनुभव करें. एक दो मिनट विश्राम के पश्चात फिर यही क्रिया पांच से दस बार दोहराई जाये. श्वास अन्दर भरने फिर छोड़ने का क्रम इतने धीरे हो कि उसकी ध्वनि न सुनाई दे. सुखपूर्वक परम विश्राम के साथ उपरोक्त क्रिया को दोहराने के साथ-साथ आत्म निर्देश पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ दोहराना जरूरी है. एक दो महीने की नियमित साधना के पश्चात शरीर, मन, मस्तिष्क में परिवर्तन समझ पड़ते हैं. इन परिवर्तनों में यह स्पष्ट अनुभूति होती है कि भावनाओं के अनुरूप ही मन व बुद्धि विकसित हो रहे हैं. इसकी दीर्घ कालीन साधना द्वारा दृढ़ संकल्पपूर्वक चेतना का प्राण के साथ संयोग हो जाने पर साधक के मन व मस्तिष्क में चुम्बकीय विद्दुत तरंगों का निर्बाध प्रवाह जारी हो जाता है. जो साधक के आस-पास  एवं उससे सम्बंधित वातावरण को प्रभावोत्पादक बनाने में समर्थ होता है.

इस प्रकार के आकर्षक वातावरण का प्रभाव एवं उसकी अनुभूति हम उच्च कोटि के साधू-संत महात्माओं के सानिध्य में सहज ही कर सकते हैं. उपर्युक्त साधना से सूर्यचक्र एवं अनाहतचक्र में एक सुनियोजित सीधा सम्बन्ध स्थापित होकर साधक की सर्वतोमुखी उन्नति में जो स्वैच्छिक सहयोग मिलता है वह शीघ्र ही लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त कर देता है.


साधना के प्रति उपेक्षा नाभि स्थित सूर्य के अमृत तत्व को पतनोन्मुख कर देती है. इसे फुलझड़ी की तरह जला कर तनिक सा विनोद भी खरीदा जा सकता है, जबकि साधना की प्रक्रिया को अपना कर उसे मधुमक्खी की तरह संचित करके अपना श्रेय और दूसरों का सुख बढाया जा सकता है. आत्म विद्द्या के अनुसार सूर्यचक्र प्राण सत्ता का साहसिक पराक्रमशीलता का एवं प्रतिभा का केंद्र माना गया है. इस स्थान पर ध्यान साधना करते हुए इस प्राण शक्ति को निग्रहीत और दिशा को सुनियोजित किया जाता है. फलतः इसके सत्परिणाम में ओजस्विता की वृद्धि के रूप में सामने आते हैं. 

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