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मनोमयकोश की साधना
ध्यानयोग बनाता है मन को नंदनवन
“मन का मंथन ही मनोमयकोश का ध्यानयोग है” इस सूत्र वाक्य पर जितनी गहनता और गहराई से विचार किया जायेगा, मनोमयकोश का साधना विज्ञान उतना ही सुस्पष्ट होगा. मनोमयकोश की साधना का प्रारंभ मानसिक क्षेत्र की धुलाई-सफाई से होता है , लेकिन बाद में इसका विस्तार उसे समुन्नत, सुसज्जित एवं सुसंस्क्र्त बनाने तक जा पहुचता है. अतीन्द्रीय शक्तिओं का विकास एवं दिव्य क्षमताओं का उभार भी इसी क्रम में होता है.
इसकेलिए क्या किया जाये ? इस प्रश्न का उत्तर है—मनोंयकोश की साधना की योजना बनाकर अपने इर्द-गिर्द ऐसा दिव्य वातावरण बनाना है, जिसके संपर्क में अंतरात्मा को दिव्य अनुभूतियों का रस मिलने लगे. वर्तमान के पतनक्रम को उत्कर्ष में कैसे बदला जाये ? इस प्रश्न का सुनिश्चित उत्तर एक ही हो सकता है की वातावरण बदला जाये. मनोमयकोश की साधना द्वारा हम ऐसी मन:स्तिथि विनिर्मित करे, जो परिस्तिथियो को दिव्य बनाने में सहायक सिद्ध हों. ऐसा दिव्य लोक कही है नहीं, उसे तो अपनी साधना से स्वयं बनाना पड़ता है. किसी की अनुग्रह से यह कार्य जादू की छड़ी घुमाने जैसी किसी क्रिया-प्रक्रिया द्वारा संपन्न नहीं हो सकता. मनोमयकोश के ध्यानयोग से दिव्यलोक के परिष्क्र्त वातावरण का सृजन स्वयं ही करना पड़ता है. ब्रह्मऋषि विश्वामित्र की तरह स्वयं विधाता बनने के अलावा अन्य कोई उपाय नहीं है.
मनोमयकोश की साधना-विधि के रूप में स्वाध्याय, सत्संग, मनन और चिंतन की चतुर्विध साधन सामग्री से सभी परिचित है. इससे अपने मन:क्षेत्र को घेरे रहने वाला उपयोगी वातावरण बनता है, लेकिन इन सबसे कही अधिक सर्वसुलभ और सर्वश्रेष्ट उपाय है ध्यान. मनोमयकोश के परिष्कार की यह सर्वोत्तम साधना-विधि है. ध्यानमग्न हो कर हम अपने इष्ट के साथ श्रद्धासिक्त घनिष्टता स्थापित कर के तादात्म की दिशा में बढ़ते चले जाते है.
ध्यानयोग वस्तुतः ऐसी विधि है, जिससे हमारा मनोमयकोश स्वर्ग का नंदनवन बन जाता है. इसका सृजन, संवर्धन , परिपोषण हम ध्यान के माध्यम से करते हैं. इसे परिपक्व करते हैं. ध्यान के माध्यम से ही परम मंगलमय उद्द्यान का रूप ले लेता है. तब मनोमयकोश में रमण करते हुए “आनंद और उल्लास” की अनुभूति होती है. मन का मंथन ही ध्यानयोग की सही विधि है. आत्मजिज्ञासा या इष्टप्रेम की मथनी लेकर मन को मथते हैं, तब ध्यानयोग की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है. शुरूआत के इस दौर में मन का तरंगित होना, चंचल होना, उद्वेलित होना सामान्य सी बात है. आखिर इसके बिना मन का मंथन होगा भी तो कैसे. कुसंस्कारों के महविश का निष्कासन इसी समय होता है. इस महविश की ज्वाला से घबरा कर प्रायः लोग कुछ समय पश्चात् ध्यान-साधना छोड़ बैठते हैं, पर यह उनकी भूल है. इस महाविष के शमन का उपाय ध्यान-साधना का त्याग नहीं, इष्टप्रेम या सद्गुरु की भक्ति का शिवतत्व है. इस अवस्था में सद्गुरु ही शिवरूप में आकर कुसंस्कारों के महाविष का त्रास मिटते हैं.
ध्यानयोग के साधकों को सद्गुरु की कृपा पर विश्वास रख कर मन के मंथन को उत्तरोत्तर तीव्र करते जाना चाहिए. विचारों, भावनाओं, आकांक्षाओं, आस्थाओं को एक एक कर के इष्टप्रेम और सद्गुरुभक्ति के इर्द-गिर्द लपेटते जन ही मनोमंथन है. इसके लिए मन की सतह से मन की गहराई पर उतरना पड़ता है.  इसी क्रम में कुसंस्कारों के महाविष के बाद अतीन्द्रीय सामर्थ्य का प्रकट होना एक सुनिश्चित तथ्य है , पर यह ध्यान का मध्य है   अंत नहीं. दिव्यसामर्थ्य का उभार सिर्फ यह बताता है कि अब साधक का मनोमयकोश परिष्क्र्त हो चला है.
मनोमयकोश की इस परिष्क्र्त अवस्था में ही स्वर्गलोक के द्वार खुलते है. गुरुदेव, गायत्री, सूर्य आदि भगवान् का कोई भी रूप क्यों न हो , साधना की इसी अवस्था में उनके दर्शन मिलते है. ध्यानयोग से प्राप्त दिव्य नेत्रों से उनका पूजन-अभिवादन किया जाता है. निराकार के साधकों को इसी भावदशा में ज्योतिपुंज के दर्शन होते है. उनमे अनेकानेक दिव्य एवं स्वर्गीय संवेदनाएं इसी समय प्रकट होती हैं.
मनोमयकोश की साधना का कथा-विस्तार बहुत है. इसे एक पंक्ति में कहा जाय तो यही होगा कि नरक की ज्यालाओं से उबरकर स्वर्ग के नंदनकानन में प्रवेश. योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय के एक शिष्य ने उनसे पुछा “ गुरुदेव योग-साधना का रहस्य क्या है ? तो उन्होने इसके उत्तर में मात्र एक शब्द कहा “ध्यान”. थोड़ी देर चुप रहने के बाद उन्होने कहा “ ध्यान कल्पवृक्ष है, इसकी सुखद छाओं में जो कोई बैठता है, उसकी सभी कामनाएं अपने आप पूरी हो जाती है. इतना ही नहीं कामनाओं के सभी रूपों से ऊपर उठ कर आप्तकाम हो जाता है.
मन के इसी और ऐसे ही मंथन से योग साधक विज्ञानमयकोश की भावभूमि में प्रवेश करता है.  






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