षटचक्र
भेदन की साधना –प्रथम चक्र आधार (मूलाधार) चक्र
कामबीज का
ज्ञानबीज में रूपांतरण
चक्र संस्थान के मूल
में स्तिथ रहने के कारण मूलाधार चक्र्योग का आधार है. इससे हमारे समूचे अस्तित्व
का मूल प्रभावित होता है. जीवन के स्पंदन श्थूल देह के माध्यम से ही ऊपर की ओर
बढ़ते हैं और अंतिम छोर सहस्त्रार चक्र में पहुँच कर व्यक्ति के जागरण की चरम सीमा
के रूप में बदल जाते हैं. सांख्य दर्शन में मूलाधार को मूल पृक्रति कहा गया है.
बात सही भी है, सम्पूर्ण संसार और सभी सांसारिक पदार्थ का एक आधार तो होगा ही,
जहाँ से उसका विकास प्रारंभ होता है और जहाँ विनाश के पश्चात उसका विलय हो जाता
है. सब तरह के विकास का मूल स्त्रोत मूल पृक्रति है. मूल पृक्रति के आधार के रूप
में मूलाधार ही बाह्य जगत की सम्पूर्ण संरचना के लिए उत्तरदायी है.
योग और तंत्र
विज्ञान के अनुभवी साधकों के अनुसार मूलाधार कुंडलनी शक्ति का वह स्थान है, जहाँ
उच्च आध्यात्मिक अनुभूतियों के प्रकटीकरण की अपार क्षमताएं समाई हैं.
आध्यात्मवेत्ताओं के अनुसार यह बड़ी शक्ति एक कुंडली मारे सर्पिणी के रूप में
सुप्तावस्था में है. जब यह शक्ति जाग्रत होती है , तो सुषुम्ना के माध्यम से ऊपर
की ओर तब तक बढ़ती है जब तक आत्मज्ञान की चरम अनुभूति के स्त्रोत सहस्त्रार तक न
पहुँच जाये. इसीलिए योग-साधना में मूलाधार चक्र के जागरण का बहुत अधक महत्व है.
यह मूलाधार चक्र
पुरुषों में पेरिनियम के थोडा अन्दर अंडकोष और गुदा के मध्य में स्तिथ होता है. यह
उस तंत्रिका समूह का आंतरिक पक्ष है , जो सब तरह की संवेदनाओं को ले जाने का काम
करती है. महिलाओं में इस चक्र का स्थान गर्भाशय-ग्रीवा के पिछले हिस्से में होता
है. पुरुषों और महिलाओं दोनों के शरीर में गाँठ के तरह एक अवशेषी ग्रंथि पाई जाती
है. शरीर विज्ञानियों एवं चिकित्साशाशत्रियोंके मत में यह एक अवशेषी अंग भर है.
परन्तु योग्शाश्त्र इस गाँठ यस कन्द को ब्रह्म ग्रंथि का नाम देते हैं. योगियों के
अनुसार जब तक यह गाँठ बंधी रहती है तब तक इस क्षेत्र की शक्ति अवरुद्ध रहती है. जैसे
ही यह गाँठ खुलती है , वैसे ही शक्ति जाग्रत हो जाती है. जब योग साधक पशु योनी की
अपेक्षा अधिक शक्ति से उच्च दिव्य चेतना की संभावनाओं को जाग्रत करने के लिए
साधनारत होता है , तो यह ब्रह्म ग्रंथि ढीली होने लगती है. जैसे-जैसे साधक में
शक्ति का जागरण होता जाता है , वैसे-वैसे मूल केन्द्र से चेतना मुक्त होने लगती
है.
योग और
तंत्रशाश्त्रों में मूलाधार की संरचना एवं शक्तियों को प्रतीक रूप में दर्शाया गया
है. यह प्रतीक गहरे लाल रंग के चार पंखुड़ियों वाला एक कमल है. प्रत्येक पंखुड़ी में
व , शं , ष , स जिन चारों के ऊपर बिंदी भी है, ऐसे अंकित है. (आज की भाषा में चार
डिस्क एंटीना) . बीच में पीले रंग का एक वर्ग है, जो पृथ्वी तत्व का बोध कराता है.
यह वर्ग चारो ओर से आठ सुनहरे बरछो से घिरा है. जिसमे चार कोनों में चार मूलभूत
केन्द्रों में है.
पृथ्वी तत्व का बोध
कराने वाला सुनहरा-पीला वर्ग एक ऐसे हाथी के ऊपर स्तिथ है , जिसकी सात सूडे हैं.
हाथी पृथ्वी का सबसे बडा मजबूत और शक्तिशाली पशु है. यही मूलाधार कहकर में समाई
शक्ति की विशेषता है. यहाँ सोई हुई शक्ति भी पूर्णरूपेण स्थाई और ठोस स्थान में
शांत पड़ी है. हाथी की सात सूड़ें सात खनिजों के प्रतीक हैं. जिनकी अनिवार्यता श्तूल
शरीर को क्रियाशील बनाए रखने के लिए हैं. आयुर्वेदशाश्त्र में इन्हें सप्तधातु कहा
गया है. सात सूड वाला यह हाथी मन व् रचनात्मकता का वाहन है.
हाथी की पीठ पर
स्तिथ वर्ग के बीच में एक गहरे लाल रंग का उल्टा त्रिकोण है. यह त्रिकोण उस शक्ति
का प्रतीक है जो उत्पादकता तथा अभिवृधि के लिए उत्तरदायी है. त्रिकोण के बीच
सूक्ष्म शरीर का प्रतीक धूम्रवर्णी लिंग है. इस लिंग के चारों ओर कुंडली साढ़े तीन
बार लिपटी है , जिससे प्रकाश निकलता रहता है. इस कुंली के तीन फेरे मनुष्य के तीन
गुणों के प्रतीक हैं. जब तक ये तीन गुण कार्यरत हैं , तब तक व्यक्ति अहंकार की
सीमा में ही क्रियाशील रहता है. इस कुंडली का आधा फेरा उत्कर्ष की संभावनाओं का
प्रतीक है.
शाश्त्रों में इस
सर्प को महाकाल का स्वरूप बताया गया है. मूलाधार स्तिथ कुंडली भी समय तथा काल से
परे है. जाग्रत अवस्था में यह हमारी आध्यात्मिक क्षमताओं का प्रतीक है , जबकि
सुप्तावस्था में यह जीवन के उस सहज स्तर का प्रतीक है , जो हमारे अस्तित्व का आधार
है. मूलाधार चक्र में दोनों ही संभावनाएं निहित हैं. मूलाधार त्रिकोण में सबसे ऊपर
लं बीज अंकित है. मन्त्र के ऊपर बिंदु के अन्दर देव गणेश एवं देवी डाकिनी के निवास
है. देवी डाकिनी के चार हाथ और चमकदार लाल ऑंखें हैं. यह देवी डाकिनी अनेको
सूर्यों की भांति प्रकाशवान हैं और इसी के साथ ये निर्मल बुद्धि की वाहक भी हैं.
मूलाधार चक्र से सम्बंधित तन्मात्रा (संवेदना) गंध है. यही से अतीन्द्रीय गंध का
प्रकटीकरण होता है.
इस मूलाधार चक्र की
दो ही संभावनाएं हैं. पहली सम्भावना है कामवासना और दूसरी सम्भावना है ब्रह्मचर्य
. पहली पृक्रतिप्रदत्त है और दूसरी है साधना प्रदत्त. कामवासना प्राक्रतिक है ,
लेकिन जब योगसाधक मूलाधार चक्र के जागरण में सफल होता है , तो उस अवस्था में
कामवासना तिरोहित हो जाती है. उसके स्थान पर ब्रह्मचर्य फलित होता है. वास्तव में
यह कामवासना का रूपांतरण है.
शाश्त्रकारो ,
आचार्यों एवं योगसाधकों ने मूलाधार चक्र के जागरण की अनेक विधियाँ बताई हैं. सभी
का अपना अपना महत्व भी है. यदि सर्वमान्य के लिए सर्वमान्य विधि की खोज करनी हो ,
तो यही कहना पड़ेगा कि ब्रह्मचर्य की साधना
ही मूलाधार को जाग्रत करती है. इसी से योग का आधार दृण होता है.
ब्रह्मचर्य की महिमा और महत्ता योग-साधना के जिज्ञासुओं
ने किसी न किसी तरह सुनी होगी. परन्तु प्रायः इसका परिचय स्थूल रूप से ही हो पाता
है. आमतौर पर ब्रह्मचर्य का अर्थ काम के दमन से लिया जाता है , जो किसी भी तरह से
ठीक नहीं है. इस पवित्र साधना में कहीं भी कोई , किसी तरह के निषेधात्मक भाव नहीं
होते. इसमें तो सब कुछ विधायी और विधेयात्मक है. ब्रह्मचर्य में एक ही भाव निहित
है , ब्रह्म के चिंतन एवं ब्रह्म में रमण का.
मूलाधार चक्र के
जागरण की साधना के लिए हमें इसी भाव को प्रगाढ़ करने की जरूरत है. ध्यान के नियमित
अभ्यास के समय यदि यह भावानुभूति गहन हो सके कि मूलाधार में सोई शक्ति क्रमिक रूप
से ऊपर उठ रही है और रेतस ओजस में रूपांतरित हो रही है , तो मूलाधार चक्र का जागरण
संभव है. अंत में यह समझ लेना चाहिए कि जब तक साधक मूलाधार चक्र का जागरण नहीं कर
लेता और जब तक भौतिक शरीर पर कामवासना को ब्रह्मचर्य में रूपांतरित अथवा परिवर्तित
नहीं कर लेता , तब तक दुसरे चक्र यानि की स्वाधिष्ठान चक्र या भावशरीर के साथ
साधना करना कदापि संभव नहीं है.
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