मन:शक्ति
संवर्धन में योग निद्रा का उपयोग
मानसिक विकास में एक अति उपयोगी प्रयोग ही, मन:संस्थान को
शिथिल कर देना. शरीर का पूर्ण शिथलीकरण, प्रक्रति प्रदत्त निद्रा, उसी के सहारे
मनुष्य अपना जीवन यापन करता है और अगले दिन के लिए कार्यकारी शक्ति प्राप्त करता
है. निद्रा में व्यधान मनुष्य को अशक्त और विक्षुब्ध दिखाई पड़ता है. जिन्हें गहरी
नींद आती है वे सामान्य आहार-विहार उपलब्ध होते हुए भी निरोग और बलिष्ठ बने रहते
हैं. मानसिक क्षमता भी उनकी बढ़ी-चढ़ी रहती है. अधिक गहरी नींद जिसे प्रसुप्ति भी
कहते हैं दुर्बलों और रोगियों को जीवन प्रदान कर सकती है. आहार और निद्रा दोनों
वर्गों की उपयोगिता लगभग समान अवसर की मानी जाती है.
मन:संस्थान की उच्च स्तरीय परतों की निद्रा का अपना महत्व
है. यदि उसे उपलब्ध किया जा सके तो इस दिव्य संस्थान को अधिक स्वस्थ एवं अधिक
समर्थ बनने का अवसर मिल सकता है.
मन की दो प्रमुख परतें है, एक सचेतन दूसरी अचेतन. सचेतन ही
सोच-विचार करता है और वह रात्रि को नींद में सोता भी है. अचेतन का कार्य संचालन की
समस्त स्वसंचालित गति विधियों की व्यवस्था बनानी पढ़ती है. श्वास-प्रश्वास,
आकुंचन-प्रकुंचन, निमेष-उन्मेष जैसी क्रियाएँ निरंतर चलती रहती है जिनके आधार पर
ही शरीर का निर्वाह होता है. यह सब कुछ अचेतन की गति विधियों पर निर्भर है. रत की
सचेतन के सो जाने पर भी अचेतन क्रियाशील रहता है और स्वप्न देखने, करवट बदलने,
कपडे ओढने, हटाने जैसे कार्य कराता रहता है.
अचेतन की इसी थकानको दूर करने और विश्राम देने के उद्देश्य
से ही म्रत्यु होती है. म्रत्यु और पुनर्जन्म के बीच के समय को चिरनिद्रा कहा जाता
है.
योग-निद्रा के छोटे और बड़े अनेक स्तर हैं. बढे स्तर को
समाधि कहते हैं. यह निर्विकल्प (संकल्प रहित) और सविकल्प (संकल्प सहित) दो स्तर की
होती हैं. सविकल्प की उपलब्धि भौतिक लाभ एंड निर्विकल्प की उपलब्धि आध्यात्मिक लाभ
होती है. योग निद्रा स्वल्प कालीन होती है और समाधि दीर्घ कालीन. दोनों ही
परिस्थितियों में मन को अधिक शांत और निष्क्रीय बनाने का प्रयत्न किया जाता है.
ध्यान योग द्वारा इस स्थिथि को प्राप्त किया जाता है, विचार
संकल्प पूर्णतया समाप्त तो किये नहीं जा सकते पर उन्हें किसी केन्द्र पर नियोजित
करके बिखराव के दबाव से मुक्त रखा जा सकता है. इतने से ही मन:क्षेत्र के जागरण एवं
विकास में असाधारण योगदान मिलता है.
पश्चिम देशों में इस प्रयोग को सम्मोहन क्रिया के नाम से
किया जाता है. इसमें स्व-संकेतों द्वारा आत्मविश्वास का और सम्मोहन द्वरा दूसरों
को अर्धमूर्छित या मूर्छित कर के सुधार उपचार किया जाता है. परिचित मस्तिष्क के
ऊपर एक और दिव्य चेतना स्त्रोत है, जहाँ चित्त शक्ति निवास करती है. मनोवैज्ञानिक
इसे अचेतन कहते हैं. “सुपर ईगो” के रूप में इसी की विवेचना की जाती है. वह
देव-लोक, अतीन्द्रिय चेतना का केन्द्र एवं ऋद्धि-सिद्धि का भंडार माना गया है. इस
क्षेत्र पर अधिकार पाने वाले को अलौकिक, असाधरण, अतिमानव एवं सिद्ध पुरुष बन सकता
है.
जब अचेतन जागता है, तब प्रबुद्ध (सचेतन) मस्तिष्क सोता है,
और जब अचेतन सोता है तो तब प्रबुद्ध मस्तिष्क जागता है. दोनों एक साथ कार्यरत नहीं
हो सकते. यदि चेतन मस्तिष्क पूर्ण सजग रहे और तर्क बुद्धि के साथ निद्रित न होने
का संकल्प किये रहे तो आध्यात्मिक जाग्रति असंभव है. जाग्रत मन को निद्रित कर के
ही अचेतन को आध्यात्म भूमिका में कुछ अधिक योगदान डे सकने योग्य बनाया जा सकता है.
मह्रिषी पतंजलि के आठ सूत्री योग विधान में अंतिम चार
प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की अवस्थाएं प्रबुद्ध मन की स्वभाविक चंचलता को
निग्रहीत करके एकाग्रता के केन्द्र बिंदु पर रोके रखने के लिए है. समाधि स्तिथि की
प्राप्ति द्वारा कई प्रकार के लाभ उठाये जा सकते हैं;
०१.प्रबुद्ध मस्तिष्क को गहरा विश्राम देकर इसे अधिक
स्वस्थ, सक्रीय एवं बुद्धिमान बनाया जा सकता है.
०२.अचेतन मस्तिष्क तो जाग्रत करके उसकी अतीन्द्रिय क्षमता
बढाई जा सकती है और चमत्कारी सिद्ध पुरुषों की देव भूमिका में पंहुचा जा सकता है.
०३.शरीर की गतिविधियाँ रोक सकने में सार्थ संकल्प बालक की
आग में संसार की कठिनाईयों को गलाया जा सकता है.
०४. दीर्घ जीवन का उद्देश्य पूरा करने के लिए काया-कल्प का
रहस्यमय अमृत पाया जा सकता है. भौतिक विज्ञान ने “शीत-निद्रा” के रूप में समाधि से
मिलती जुलती एक विधि ढूढ़ निकली है
शीत-निद्रा के करण भौतिक हो या हिप्नोटिस्म स्तर के मानसिक
हो अथवा समाधि स्तर के आध्यात्मिक हो, हर स्तिथि में सर्वतोमुखी विश्राम एवं शांत,
एकाग्र समाधान की आवश्यकता अति महत्वपूर्ण समझी जाती रहेगी.
योग निद्रा का तात्पर्य है चेतना का प्रवाह शरीर निर्वाह की
दिशा से हटा कर अन्तःक्षेत्र की ओर मोड़ देना. इसके दो लाभ होते है, एक तो
उच्चस्तरीय क्षमता का अभिवर्धन, दुसरे निक्रष्ट कुसंस्कारों का निराकरण. दोनों
कार्य एकसाथ चलने लगते हैं. प्रकाश बढ़ता है तो अन्धकार अनायास ही अपना स्थान छोड़ने
लगता है.
मानसिक तनाव एवं विक्षोभ के करण व्यक्तित्व की अपार हानि
होती है. यह उद्दिग्नता और कुछ नहीं, अंतराल की असमर्थता भर है. यह असमर्थता और
कुछ नहीं, समुचित विश्राम न मिलने की प्रक्रिया है. मन:क्षेत्र का बिखराव रोकने की प्रक्रिया ही
ध्यानयोग है. इसका अधिकांश लाभ मस्तिष्क के उस क्षेत्र को मिलता है जिसे
ब्रह्मचक्र, ब्रह्मरंध्र, सहस्त्रार , शून्य चक्र आदि कहते हैं. यह इस क्षेत्र में
अवस्थित दो अति महत्वपूर्ण ग्रंथियों की समन्वित प्रक्रिया का भ्रम है.
“आज्ञा-चक्र इसी को कहते हैं. ध्यानयोग की प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में एक रुचिकर
वैज्ञानिक तथ्य है कि इस दौरान मस्तिष्क का सक्रीय भाग तुरंत पीनिअल और पिटयुट्री ग्रंथियों
से सम्बन्ध स्थापित कर लेता है. यह उनकी हारमोंस स्त्राव करने की क्षमता में होने
वाले परिवर्तनों से परिलक्षित होता है. ये दोनें ही स्थूल ग्रंथियां आध्यात्म की
द्रष्टि से बढ़ी रहस्यमय हैं. दोनों ही ऐसे हारमोंस का स्त्राव करती हैं जो हमारी
चेतना के स्तर को प्रभावित करती हैं. पीनिअल ग्रंथि को दार्शनिकों, रहस्यवादियों ने
“तीसरा नेत्र” एवं आत्मा का स्थान कहा है. इसका पूर्ण जागरण हमारी चेतना को
भावनात्मक एवं बौद्धिक स्तर से ऊपर उठाकर और अधिक सूक्ष्म जगत में ले जाता है.
पिटटयुट्री ग्लैंड को तो शरीर का सम्राट कहा जाता है. इस
ग्रंथि में स्नायु-संस्थान और हर्मोने-संस्थान की परस्पर प्रक्रिया से ही
रसस्त्राव होता है. सरे शरीर की अन्य हार्मोन ग्रंथियां चयापचयी एवं भावनात्मक
प्रतिक्रिया को पिटटयुट्री प्रभावित करती है “यह अनंत विस्तृत परम चेतना का प्रवेश
द्वार है.” यह भौतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों का मिलन बिंदु भी है. ध्यान साधना
द्वारा इस ग्रंथि को नियंत्रित और नियमित कर मनुष्य अपने स्थूल-सूक्ष्म और आत्मिक
आवरणों का परिमार्जन कर सकता है, पूर्ण मानव बन सकता है.
जब भी कोई योग-निद्रा का अभ्यास करता है प्रत्येक बार शक्ति
प्रवाह ब्रेन सर्किटों के मध्य नये सम्बन्ध स्थापित करता है. मस्तिष्क के अँधेरे,
निष्क्रीय क्षेत्रों को प्रकाशित और सक्रीय करता है. यह हमारी चेतना को बाहरी जगत
के उसके पूर्ण व्यवसाय से अलग करता है तथा उसकी अचेतन क्रियायों को चेतन के
नियंत्रण में लाता है. चिकित्सा जगत में योग-निद्रा का उपयोग शारीरिक एवं मानसिक
रोगों के निराकरण के लिए किया जा रहा है. इसमें उच्च सफलता भी मिल रही है.
अनेको नशे की गोलियां खा कर सोने वालों, शराबिओं, नाख़ून
कुतरने की बुरी आदत वाले, बिस्तर पर पेशाब करने वाले, अंगूठा चूसने वाले बालकों पर
भी सम्मोहन क्रिया सफल रही है. मन: तत्व के विज्ञान एवं उपचार में योग-निद्रा का
अति महत्वपूर्ण स्थान है. पदार्थ की तुलना में यदि चेतना का महत्व स्वीकार किया
गया तो यह भी मानना पडेगा कि योग-निद्रा जैसे अभ्यास व्यक्तित्व को अधिक समर्थ
बनाने में और उस आधार पर सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त करने में अति उपयोगी सिद्ध
हो सकती है.
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