ऋषियों की अमूल्य देन : मधुविद्दा
(भाग
---१/२)
सविता-अमृत तत्व का स्त्रोत है. इसकी उपासना साधक के जीवन
में प्राण भरती- मन में उल्लास तरंगित करती और आत्मा को उसके अमृत स्वरूप कला बोध
करा देती है. इसकी ओर से साधक का ध्यान हट न जाये ऐसी सतर्कता रखते हुए अध्यात्म
विद्दा के अन्वेषक मनीषियों ने जगह-जगह पर उसके अर्थ, गुण, कर्म एवं स्वरूप को
प्रतिपादित किया है.
छान्दोग्य-उपनिषद में वर्णित मधुविद्दा इस रहस्मय तत्व का
सर्वांगीण विवेचन है. स्थान-स्थान पर बिखरी उपासना की रहस्यमय रश्मियाँ- एकत्रित
होकर यहाँ प्रकाशित हैं. इस उपनिषद के प्रथम खंड के प्रथम बारह श्लोकों में
मधुविद्दा एवं सविता साधना को मनोरम ढंग से समझाया गया है. इसके अनुसार आदित्य
देवताओं का मधु है. अर्थात “ॐ” यह आदित्य निश्चय ही देवताओं का मधु है. द्दू लोक
ही वह तिरछा बांस है, जिस पर यह मधु लटका है. अंतरिक्ष छत्ता है और किरणे
मधुमक्खियों के बच्चे के समान हैं.
इस मन्त्र में जहाँ तत्वदर्शी ऋषियों द्वारा साक्षात्कृत परम
तत्व की अनूठी अभिव्यंजना की गई है, वहीँ उनकी वैज्ञानिक जानकारी का भी परिचय
मिलता है. आदित्य का आधीभौतिक रूप परमाणु है. आधुनिक विज्ञान पदार्थ विद्दा मात्र
होने के कारण मात्र पदार्थ तत्वों का विश्लेषण करता है. इसलिए उसकी पदावली मात्र
भौतिक द्रव्य के लिए निर्दिष्ट होती है. आमतौर पर आधुनिक परिवेश में पले और पढ़े
लोग इसे ही एक मात्र सही वैज्ञानिक विधि मान बैठते हैं. क्यों कि वे मस्तिष्कीय
क्षमताएँ जो कि चिंतन प्रणालियों का निर्धारण करतीं हैं, वे अभ्यस्त क्रम का ही
विचार करने में सुविधा अनुभव करती हैं. यही कारण है कि मनुष्य अपने प्रिय एवं
परिचित विषयों को ही बार-बार सुनना-देखना एवं अनुभव करना पसंद करता है और थोडा
हेर-फेर से उसी अनुभव को दोहराने को वह नयापन-नवीनता आदि कहता-समझता रहता है. उस
प्रचलित ढर्रे से भिन्न सोचने-करने वाले को सामान्य मनुष्य न समझ पाते और न सह
पाते. वे उसे अप्रमाणिक, अशास्त्रीय, अवैज्ञानिक आदि कहने लगते. बाद में काल-क्रम
से जब वह नया प्रतिपादन उनके लिए जाना-पहचाना हो जाता है तब वे उसे स्वीकार कर
लेते हैं, किन्तु अगले नये प्रतिपादन, नये अन्वेषण के प्रति पुनः वैसी ही
प्रतिक्रिया करते हैं.
यह सब यहाँ इसलिए स्मरण कराना आवश्यक लगा क्योंकि इन
दिनों जो वैज्ञानिक पदावली चली है उसमे सिर्फ पदार्थ तत्व का निर्देशन रहने से लोग
उसे ही एक मात्र वैज्ञानिक अभिव्यक्ति मानने लगे हैं. किन्तु प्राचीन भारतीय
चिन्तक वैज्ञानिकों की अभिव्यक्ति प्रणाली भिन्न थी. वे मात्र पदार्थ विद्दा के
जानकार ही नहीं अपितु देवत्व एवं आत्म तत्व के भी मर्मज्ञ होते थे. अपनी इस
समग्रता के कारण उन्होने अभिव्यक्ति की एक ऐसी प्रणाली का अविष्कार किया था जिसमे
एक ही पदावली एक साथ आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक तीनों ही अभिप्रायों-
अर्थों को अभिव्यक्त करती थी. ऐसा करना जहाँ आज की अभिव्यक्ति शैली से बहुत अधिक
जटिल-कठिन कार्य था, वहीँ जन-सामान्य के लिए वह आधुनिक शैली की तुलना में अधिक
उपयोगी एवं लाभकारी था. उसका एकसाथ ही तीनो स्तरों पर प्रशिक्षण होता चलता था.
स्पष्टतया इस अभिव्यक्ति प्रणाली के लिए अनुपम मेधा की आवश्यकता है, जो
ऋतंभरा-प्रज्ञायुक्त ऋषियों में ही संभव है. इसके मन्त्रों में उसी भारतीय
शास्त्रीय शैली में सविता तत्व का विवेचन है. आदित्य का आदिभौतिक रूप हे परमाणु,
आदिदैविक रूप है ग्यारह प्रमुख देवगणों में से एक आदित्य देव तथा आध्यात्मिक रूप
है चेतना-आदित्य, सर्वव्यापी सविता ब्रह्म. यात्पिंडे-तत ब्रह्मांडे की अदभुत शैली
में ही स्रष्टि संरचना होने के कारण ही ऐसा प्रतिपादन संभव हुआ. क्योंकि जो अणु
में है वही विराट रूप विभु में है.
यहाँ इस मन्त्र में आदित्य का जो वर्णन है, वह परमाणु पर
भी लागु होता है. तिरछे बांस की तरह का द्दूलोक परमाणु में इलेक्ट्रान के भ्रमण
कक्ष वाला बहरी स्तर है. आर्बिटल से युक्त परमाणु कलेवर ही मधु का छत्ता है.
परमाणु की इन अन्तस्थ कोष्ठकों में जो फोटान कण होते हैं वे ही मधुमक्खियों के
बच्चे मरीचि हैं. भौतिक सूर्य पर भी यही विवरण लागू होता है, क्योंकि वह ऐसे ही
परमाणुओं की एक विशाल, विराट “मास” ही तो है. फोटोनों में विद्दुत-चुम्बकीय उर्जा
भरी रहती है और वे सूर्य किरणों की तरंगों में समाहित रहते हैं.
फोटान्स प्रकाश कण है, यह अब सर्वविदित है. मरीचि सूर्य
की रश्मियों के ही नाम है. सूर्य का एक नाम मरीचि या मारीच है. यहाँ अभिव्यंजित
आदित्य का आधिदैविक अर्थ आदित्य देवगण है. जो दृश्य यानि प्रकाश विकरण उर्जाओं के
स्तर पर सक्रिय चेतन शक्तियां है. आध्यात्मिक दृष्टि से यह आदित्य सर्वव्यापी
सविता ब्रह्म है. वह देवताओं का मधु है. चेतन देवसत्ताओं की अमरता और मधुमयता का
उद्गम स्त्रोत सविता ही है. “सविता वा देवानं प्रसविता” शास्त्रीय कथन है. सविता
ही देवों का प्रसविता है. उसी से मधुरस ग्रहण कर देवसत्तायें बलवान बनतीं हैं. यह
मधु सम्पूर्ण अंतरिक्ष में व्याप्त है. अंतरिक्ष या आकाश तत्व ब्रह्मांडव्यापी
अमूर्त मौलिक तत्व है. उसमे जो चेतनता का मधु भरा पड़ा है वही आदित्य या सविता है.
देवउर्जायें उसी से शक्ति या प्राण रस, मधुरस ग्रहण करती रहती हैं.
उपनिषत्कार में इससे आगे सूर्य से चारों ओर विकीर्ण होने
वाली रश्मियाँ को मधु-नाड़ियाँ कहा है. इन मधु-नाड़ियों से भिन्न-भिन्न दिशाओं में
प्रवाहित मधु की चर्चा की गयी गई. इस सम्बन्ध में जहाँ तक आधुनिक भौतिकी का प्रश्न
है, वह सृष्टि के मूल कणों की खोज के क्रम में इस तथ्य तक तो पहुंच चुकी है कि
परमाणु नाभिक के परितः उर्जा स्तरों में इलेक्ट्रोन कण परिभ्रमण करते रहतें हैं.
यह परिभ्रमण गति आवर्तक होती है. किन्तु इस गति को दिशा और उसके सापेक्ष वेग का
निर्धारण आधुनिक भौतिकी के द्वारा संभव नहीं हो सका है. कारण यह है की इलेक्ट्रोन
की ठीक-ठीक स्तिथि एवं उसके वेग का वैज्ञानिक अध्यन प्रयोगशाला में प्रकाश रश्मि
के ही उपयोग से किया जाता है और स्वयं प्रकाश रश्मि में फोटान कण होतें हैं जो
सृष्टि के मूल कणों में से एक है और अजर-अमर हैं.
(शेष
......भाग....२ में)
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