साकार एवं
निराकार उपासना की पृष्टभूमि
आत्मोत्कर्ष का लक्ष्य यही है कि आत्मा का हर दृष्टि से
विकास विस्तार परमात्मा के समतुल्य हो. बूँद समुद्र में मिले. छोटा निर्झर गंगा
में अपने आप को समर्पित कर के अपनी लघुता को महानता में विकसित करे. ईश्वर व्यापक
है – जीव सीमित. ईश्वर दिव्यता का समुद्र है- जीव पर मलीनता की परत छायी है. अतः
उस परत को हटाना और ईश्वर की दिव्यता का साक्षात्कार आत्मा को कराना ही समीपता-
सायुज्यता- तद्रूपता अथवा दुसरे शब्दों में उपासना है.
ईश्वर इतना विराट है कि उसके समग्र स्वरूप एवं क्रियाकलापों
को न तो उपकरणों के माध्यम से प्रयोगशाला में प्रत्यक्ष किया जा सकता है और न
मानवी बुद्धि अपनी समीपता के कारण उस असीम की विवेचना कर सकती है. “अक्षोरणीयान
महती महीयान “ की व्यख्या विवेचना तो नहीं पर अंतरात्मा के मर्म स्थल में अनुभूति
हो सकती है. इस अनुभूति के दो आधार है – एक साकार दूसरा निराकार उपासना. साकार
परमेश्वर यह विश्व ब्रह्मांड है. शिवलिंग और शालिग्राम की गोल-मटोल प्रतिमाएं इसी
के प्रतीक के रूप में गढ़ी गयी हैं. भगवान राम ने कौशल्या और कागभुशुंडी को – भगवान
कृष्ण ने अर्जुन और यशोदा को यही अपना विराट रूप दिखाया था. साकार ईश्वर की उपासना
लोकमंगल के सत्प्रयोजनों में संलग्न रहकर की जा सकती है.
निराकार ईश्वर भाववेद्नाओं और उत्कृष्ट विचारणाओं में परिलक्षित होता है,
उन्ही की प्रेरणा से आदर्श कर्तव्य बन पड़ता है. अन्तरंग जीवन में निराकार ईश्वर की
प्रतिष्ठापना करनी होती है और बहिरंग क्रिया-कलाप में विराट विश्व के लिए अपने
साधनों को समर्पित करना होता है.
साकार उपासना में इष्ट के समीप अति समीप होने और उनके साथ
लिपट जाने, उच्च स्तरीय प्रेम के आदान-प्रदान की गहरी कल्पना की जाती है. इसमें
भगवान और जीव के बीच माता-पुत्र, पति-पत्नी, सखा-सहोदर, स्वामी-सेवक जैसा कोई भी
सम्बन्ध स्वीकार किया जाता है. इससे आत्मीयता को अधिकाधिक घनिष्ट बनाने में सहायता
मिलती है. नव्भक्ति में ऐसे ही आदान-प्रदान की वस्तुपरक अथवा क्रियापरक कल्पना की
गयी है. मूलतः लक्ष्य एक ही है कि भक्त और भगवान के बीच सघन आत्मीयता की अनुभूति
करने वाला आदान-प्रदान चलना चाहिए. भक्त अपनी अहंता को क्रिया, विचारणा, भावना
रुपी संपत्ति को भगवान् के चरणों पर अर्पित करते हुए सोचता है, यह सारा वैभव उसी
दिव्य सत्ता की धरोहर है.
साकार उपासना में नर और नारी की दोनों ही आकृतियों में
परब्रह्म की प्रतिमा बनाई जाती रही है. दोनों में पवित्रता, कोमलता, उदारता, सेवा,
समर्पण, समेह, वात्सल्य जैसी भावनाओं के आधार पर देखना हो तो नारी की गरिमा अधिक
बैठती है. नारी दानी है और नर उपकृत. ईश्वर की प्रतिमा को किस रूप में माना जाय ?
इस दृष्टि से विवेक का झुकाव नारी पक्ष में जाता है. अधिक अच्छा यही है परब्रह्म
को नारी रूप में- मातृसत्ता का प्रतीक मानकर चला जाये.
गायत्री माता के रूप में परब्रह्म की स्थापना सर्वोपयोगी
है. उसके सान्निध्य में माता की गोदी में खेलनेवाले बालक को मिलने वाले वात्सल्य
एवं पय: पान जैसे स्थूल-सूक्ष्म लाभों की अनुभूति होती है. सोलह वर्ष की सुन्दर
कन्या में मातृसत्ता के दर्शन करने से नारी के प्रति अचिंत्य चिंतन का जो प्रवाह
इन दिनों चल पड़ा है उसे रोकने और भाव भारी दिव्य श्रद्धा की प्रतिमा उसे मानने की,
जन चेतना को उत्पन्न करने की दृष्टि से भी यह स्थापना अतीव उपयोगी है. गायत्री
माता का वाहन हँस माना गया है. हँस अर्थात स्वच्छ, धवल, कलेवर नीर क्षीर विवेक का
प्रतिनिधि, मोती चुगने या लंघन करने के लिए दृणप्रतिज्ञ. वास्तव में यह परिभाषा
आअध्यत्मिक हँस की है. संकेत यह है कि परमात्मा की दिव्य शक्ति को धारण करने के
लिए साधक को अपनी उत्कृष्टता हँस स्तर की विकसित करनी चाहिए. उसे क्रियात्मक स्थूल
जीवन में धर्मपरायण, विचारात्मक, सूक्ष्म जीवन में विवेकवान और आस्थापरक अन्तः
प्रदेश में सद्भाव्संपन्न होना चाहिए. गायत्री माता के एक हाथ में पुस्तक दुसरे
हाथ में कमंडलु होने के पेचे भी सद्ज्ञान और शांतिदायक सत्कर्मों की धारणा के
संकेत हैं.
उपासना सार्वभौम, सार्वजनीन बन सके इसके लिए आवश्यक है
निराकार उपासना को मान्यता मिले, इस दृष्टि कोंण से सविता देवता की उपासना एवं ज्ञानज्योति की उपासना
सार्वभौमिक हो सकती है, निराकारवादी अंतर्मुख होकर दिव्य-ज्योति के रूप में
परमात्म सत्ता का दर्शन करते हैं और इसे सूर्य का प्रतीक मानते हैं. आध्यात्मिक साधना
में अग्निपिण्ड सूर्य की प्रतिमा भर मन गया है. उसकी मूल सत्ता दिव्य ज्ञान कही गई
है. निराकार ‘प्रज्ञा’ तत्व का आकार रूप ‘सविता’ है. सविता अर्थात सद्ज्ञान को
अंतःकरण में आलोकित करने वाला प्रकाशवान परब्रह्म. सूर्य की उपासना करते हुए यह
अनुभूति विकसित की जाती है कि वह आलोक साधक के शरीर, मन और अंतरात्मा में स्थूल,
सूक्ष्म और कारण शरीरों में सक्रियता सद्ज्ञान एवं सदभाव बन कर प्रकाशवान हो रहा
है. इस प्रकार सूर्य को न केवल आलोक दर्शन की दिव्य प्रक्रिया मात्र मन कर बात
समाप्त कर डी जाती है, वरन उसकी आभा से आत्मसत्ता को पूरी तरह प्रकाशित एवं
प्रभावित भी देखा जाता है. निराकार उपासक के लिए भी भगवान व्यक्ति नहीं शक्ति बन
जाता है और उसे स्थान विशेष पर प्रतिष्ठित नहीं वरन व्यापकता के सहित अनुभूति में
उतारा जाता है.
साकार एवं निराकार मान्यताओं की महत्ताओं की महत्ता अपने
स्थान पर है, किन्तु वास्तविक महत्ता उपासना रुपी उस मार्ग की है जिसमे ईश्वर के
साथ एकाकार हो जाने, समुद्र में बूँद का अस्तित्व मिला देने एवं पतंगे की तरह दीपक
की लौ में प्राण न्योछावर करने की आकुलता, एवं श्रेष्ठ बनने का विश्वास मुख्य होता
है. दृड़ विश्वास एवं आकुलता , तडपन वह आकर्षण है जो हमें इष्ट तक ले जाने एवं
तद्रूप बना देने में समर्थ है. रामकृष्ण परमहँस जब स्त्रैण साधना कर रहे थे तो
उनकी मान्यताओं एवं भावना के आधार पर स्त्रियोंचित गुण ही नहीं शारीरिक लक्षणों का
भी प्रकटीकरण होने लगा था. झड़ी का भूत और रस्सी का सांप मान्यताओं पर ही आधारित
है. जिस चिकत्सक पर विश्वास होता है उसकी झाड़ –फूंक और राख-भभूत भी संजीवनी बूटी
का काम करती है. और जिस पर संदेह हो तो सुयोग्य चिकत्सक की उपयोगी दवा भी काम नहीं
करती है.
ईश् उपासना वह आकर्षण एवं वह चुमबकत्व है जो ईश्वरीय
विभूतियों ऋद्धी-सिद्धियों, दैवी गुणों एवं महानता को खींच ले आती है. उपासना वह
प्रक्रिया है जिसमे शरीर रूप रेडिओ को ईश्वर की अनेक शक्तियों के साथ ‘ट्यून’ करना
होता है. जिसके द्वारा ईश्वर के महासागर में से विपुल वैभव में से हम अपनी
आवश्यकतायें एवं सम्पदाएँ प्राप्त कर सकते हैं. उपासना में ईश्वरीय सानिध्य की
कल्पना ही नहीं अनुभूति भी अपेक्षित होती है. भावनिष्ठा को कार्यान्वित होते देखकर
ही ऐसी मनःस्तिथि बनती है. इसलिए यह सोचना होता है कि परमेश्वर प्रत्यक्ष ही सचमुच
ही सामने विराजमान हैं और उनकी किसी जीवित व्यक्ति के उपस्थित हो जाने पर की जाने
वाली जैसी अभ्यर्थना की जा रही है. यदि उतने समय शरीररहित भौतिक प्रभावों से मुक्त
ज्योतिर्मय आत्मा ही ध्यान में है और उसमे महाज्योति के साथ समन्वित हो जाने की
दीप-पतंगे जैसी आकांक्षा उठ रही है, तो समझना चाहिए कि उपासना का स्वरूप अपना लिया
गया और अपने अभीष्ट उद्द्येश्य पूरा हो सकने की सम्भावना बन रही है.
उपासना फलीभूत तब होती है जब इष्ट निर्धारण स्पष्ट होता
है. प्रगति के किस बिंदु तक पहुंचना है, इसका सुदृड़ निश्चय होना आवश्यक है. भव्य
मकान बनाने के लिए श्रेष्ठ आर्किटेक्ट से अभीष्ट निर्माण का नक्शा बनाया जाता है.
वस्तुतः इष्ट निर्धारण से मन को एक निश्चित दिशा में आगे बढ़ने और तदनुरूप प्रयास
करने हेतु साधन जुटाने का मार्ग मिल जाता है. जिस स्तर का तादात्म्य इष्ट के साथ
है, उसी स्तर की अन्तःक्षेत्र की प्रसुप्त शक्तियां जागने लगतीं है. परब्रह्म के
शक्ति भंडार में से इसी स्तर की अनुग्रह वर्षा भी आरंभ हो जाती है.
ईश्वरीय सत्ता का मनुष्य में अवतरण “उत्क्रष्टता” के रूप
में होता है. चिंतन और चरित्र में उच्चस्तरीय उमंगें उभरने लगती हैं तथा उसी स्तर
की गति-विधियाँ चल पड़ती हैं. उत्क्रष्टता की उपासना ही ईश्वर की उपासना है.
उपास्य, लक्ष्य, इष्ट इसी को बनाना पड़ता है. प्राचीनकाल में इस सम्बन्ध में
तत्वज्ञानियों ने एकमत हो स्वीकार किया था कि आत्मिक प्रगति की साधना के लिए इष्ट रूप
में गायत्री का ही वरण होना चाहिए. सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी ने कमल पुष्प पर
बैठ कर आकाशवाणी द्वारा निर्देशित गायत्री उपासना की थी और सृष्टि स्रजन की
सामर्थ्य प्राप्त की थी. त्रिदेवों की उपास्य गायत्री ही रही हैं.
यों गायत्री का स्थूल रोप्प चौबीस अक्षरों के एक शब्द
गुच्छक के रूप में है और उसकी प्रतिमा हंसारूढ देवी के रूप में बनती है. किन्तु यह
नाम और रूप का निर्धारण है. चिंतन को किसी दिशा में आगे बढ़ाने के लिए नाम, रूप का
अवलंबन अनिवार्य है. श्रद्धा का आरोपण संवर्धन इस प्रतिमा प्रतिस्ठापन के सहारे
सहज-सुलभ रीति से अग्रगामी बनता है. मानवी श्रद्धा ही अपनी अभिरुचि एवं आकांक्षा
के अनुरूप किसी केंद्रबिंदु का आस्था का समीकरण करती है उसे सशक्त बनाती है और
उससे असाधारण लाभ उठाती है. जिसे साकार रूप में मानना हो वह एकलव्य के द्रोणाचार्य,
मीरा के गिरिधर गोपाल, रामकृष्ण परमहंस की काली की ताः गायत्री माता के रूप में
उनका भाव निर्धारण कर सकता है. जो निराकार रूप में मानते हों, वे उत्कृष्टता के रूप
में ऋतंभरा-प्रज्ञा के रूप में, सविता के स्वर्णिम प्रकाश के रूप में, महामंत्र के
शब्दार्थ में छुपे हुए भाव के अनुरूप परमात्मा के गुणों के रूप में मानते हुए अपनी
उपासना को गतिशील कर सकता है.
गायत्री उपासना के महात्म से अनेकानेक ग्रन्थ भरे पड़े
हैं. वस्तुतः वे सभी लाभ साधक को मिल सकते हैं यदि बिना भटके राजमार्ग को अपनाया
जाय तो आत्मोत्कर्ष की चरम परिणति पूर्णता तक पहुँचती है. साकार व निराकार उपासना
जब भी सारा तत्वज्ञान व पृष्टभूमि को समझते हुए की जाती है तो साधना से सिद्धि के
सिद्धांत में फिर कहीं भी किसी संदेह की गुंजाइश नहीं रह जाती.
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